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परिवार-परिवार के बीच, समाज और समाज के बीच, संसारी और संन्यासी के बीच हमारा बेलगाम गुस्सा ही दूरियां बनाता है। मेरे पास लोग आते हैं और कहते हैं उनके बच्चों को गुस्सा बहुत आता है। वे कहते हैं, बच्चों को प्रतिज्ञा दिलवा दूं कि वे गुस्सा नहीं करेंगे। हालांकि बच्चों पर मेरी बात का, मेरी शांति का असर पड़ता है, पर मेरा प्रश्न होता है कि कहीं माता-पिता में से तो किसी को गुस्सा नहीं आता? क्योंकि कोई-न-कोई तो गुस्सैल स्वभाव का होता ही है। ऐसी स्थिति में तब वे कैसे अपेक्षा रख सकते हैं कि बच्चा गुस्सा न करे। यह तो आनुवंशिक गुण हो गया। जन्मजात दुर्गुण हो गया है यह । हम चाहते हैं कि हमारे बच्चे क्रोध से मुक्त हों, सबके प्रति प्रेम और सम्मान से भरे रहें, तो अच्छा होगा कि हम स्वयं को गुस्से और गाली-गलौच से मुक्त करें।
क्रोध दूसरों को ही नहीं स्वयं को भी हानि पहुँचाता है। हम अख़बारों में पढ़ते हैं - किसी ने आत्महत्या कर ली, कोई जलकर मर गया, कोई दुर्घटना हो गई। इनके पीछे क्या कारण है ? कहीं-न-कहीं क्रोध मूल में रहता है।
क्रोध ऐसी बीमारी है जो हर किसी के जीवन में छाई हुई है। हर किसी के घर में इसकी आग सुलगती रहती है। प्रत्येक समाज, जाति और धर्म के बीच में इसकी चिंगारियाँ सलगती रहती है। क्रोध इतना घातक है कि छोटे से छ: माह के बच्चे की बात को न सुना-समझा जाए तो वह भी गुस्से से हाथ-पाँव पटकने लगता है, रो-रोकर हल्का हो जाता है। दो वर्ष के बालक को मांगने पर चीज़ न दी जाए तो वह भी गुस्से से भरकर अपने खिलौने तोड़ डालता है या अन्य किसी प्रकार से अपना गुस्सा प्रकट करता है। दस वर्ष का बच्चा गुस्से में घर से भाग जाता है। अठारह साल का बच्चा अपने माता-पिता से गुस्से में दुर्व्यवहार करने लगता है, तीस वर्ष का युवक शादी हो जाने पर गुस्से में अपना अलग घर बसा लेता है। पिता क्रुद्ध हो जाए तो दो साल के बच्चे को भी चांटा मार सकता है। अठारह वर्ष के युवक को भी पीट डालता है।
क्रोध में पति अपनी लक्ष्मी-स्वरूपा धर्मपत्नी पर ही हाथ उठा बैठता है।
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