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लंका के समुद्र-तट पर पत्थर तिरा कर दिखाऊँगा। लंका में घोषणा हो गई कि महाराज रावण भी पत्थर तिरा कर दिखाएँगे। पूरी लंका की प्रजा समुद्र-तट के पास जमा हो गई। लोग रावण की जय-जयकार करने लगे। रावण के सामने परीक्षा की घड़ी थी। एक भारी भरकम पत्थर लाकर रावण के हाथ में थमाया गया। पत्थर के ऊपर लिख दिया गया - 'रावण'। और रावण ने वह पत्थर हाथों में थामकर आँखे बंद की, न जाने क्या बुदबुदाया और पत्थर को पानी में छोड़ दिया। आश्चर्य! पत्थर पानी में तैरने लग गया। रावण की जय-जयकार होने लग गई।
रात में मंदोदरी रावण के पास बैठी थी। मंदोदरी ने सवाल किया - 'महाराज, माफ़ी बख्शें, आपका पत्थर पानी में तिरा, यह बात समझ में नहीं आई। राम का पत्थर तिरा तो बात समझ में आती है कि राम के साथ तो राम की मर्यादा है, धर्म है, सीता का सतीत्व है।' रावण ने कहा, 'नाम तो पत्थर पर मैंने अपना ही लिखा था, पर जब सभासदों ने कहा कि राम का नाम पत्थर पर लिखने से पत्थर तिरने लग जाता है तो एक क्षण के लिए मेरी सोच राम के प्रति सकारात्मक हो गई। मैंने जब पत्थर को अथाह जलराशि पर छोड़ा तो मैंने कहा – 'हे पत्थर, तुम्हें राम की सौगंध है अगर तुम डूब गए तो।' बस, वह पत्थर पानी पर तिरने लग गया।
घटना केवल प्रतीकात्मक है। एक क्षण की सकारात्मकता अगर पत्थर को पानी में तिरवा सकती है तो क्या जीवनभर की सकारात्मकता इंसान की आन-बान नहीं बचा सकती? मेरे एक प्रिय आत्म सज्जन हैं : श्रीपालजी सिंघी। उन्होंने मेरे सकारात्मक सोच के संदेशों को हर कलेक्ट्रेट
ऑफिस में लगवाया। उन्होंने अपने राजनीतिक जीवन में एक धार्मिक लक्ष्य बनाया कि मैं अपने गुरुजी के सकारात्मक सोच के संदेश को हर आई.ए.एस.
ऑफिसर तक पहुँचाऊँगा। मैं उन्हें साधुवाद भी देता हूँ और शुक्रिया भी अदा करता हूँ। उन्होंने वह किया जो आज
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