SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 87
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धन की तरह सींचोगे ? बटोरो मत, बाँटो भी । नदी की तरह बनो। गढ्ढा बनकर स्वयं को दूषित मत करो। यह दूषण प्रवृत्ति ही लोभ है। निर्लोभता के विचारों की एकाग्रता और परिपक्वता ही ध्यान का प्रवेश-द्वार है। चाह विचारों की आंधी है, मकड़ी का जाला है। सपना विचारों का प्रतिबिम्ब है। सपने में देखा तो बहुत जाता है, किन्तु पाने के नाम पर हवा का झोंका है। सपना तो राजकुमार का देखते हैं, पर आंख खुलने पर अपने आपको फुटपाथ पर पाते हैं। निर्वाण स्वप्न- - मुक्ति का ही अभियान है। चाह स्वप्न का ही फैलाव है। चाह वासना है और वासना से मुक्त होने का नाम ही मोक्ष है, निर्वाण है। वासना- - मुक्ति के लिए वासना-बोध जरूरी है। मन से मुक्ति पाने के लिए मन के व्यक्तित्व को समझना आवश्यक है। निर्मित इच्छा की सार्थकता और निरर्थकता हो हम समझें। इच्छा एक झूठ है और झूठी इच्छाएं ही पैदा होती हैं। वायवी कल्पनाओं / इच्छाओं के घोड़े पर सवार अशिक्षित आदमी खाई में ही गिरेगा। पथानुप्रेक्षी अपनी चाह और वासना को समझता हुआ निर्लोभ के संयमित मार्ग पर कदम बढ़ाए। ऐसा करने से ही निर्वाण के द्वार पर दस्तक होगी। मरूस्थल में भला गुलाब खिलेगा भी कहां से। जैसे ही मनुष्य यह बोध प्राप्त करेगा कि रेगिस्तान में फूल खिलाने का श्रम निरर्थक है, उसी समय वह अपने श्रम को नयी दिशा दे देगा। जीवन में घटित होने वाली यह नई दिशा ही आध्यात्मिक क्रान्ति है । जब तक मन के साथ भटकाव भरी जिंदगी जीयेंगे, तब तक सुख की माधुरी कहां ! यदि दुखों से छूटना चाहते हो, तो लोभ से छूटना ही होगा । दुःख संसार में नहीं है। दुःख लोभ में है। लोभ ही संसार है। लोभ के कारण संसार है। इसीलिए संसार दुःख है। लोभ जनक है दुःख का । इसलिए लोभ के जाते ही संसार और दुःख दोनों ही चले जाते हैं। जो लोग संसार को छोड़ देते हैं, किन्तु लोभ को बचा लेते हैं, वे पेड़ की टहनियों को काट लेते हैं, किन्तु जड़ बचा लेते हैं। यह बिल्कुल ऐसा ही है जैसे किसी आदमी के पास शराब की बोतल हो। उसने शराब पी ली और बोतल फेंक दी। वह बोतल तोड़ दे। वह यदि कहे कि मैने बोतल छोड़ दी, तो वह चलाकी चल रहा है। उसने बोतल छोड़ दी, मगर शराब बचा ली। शराब को बचाना लोभ को बचाना है। पर यदि शराब छोड़ देंगे, तो बोतल अपने आप छूट जाएगी। लोभ गया कि संसार गया समझो। संसार और समाधि 76 Jain Education International For Personal & Private Use Only -चन्द्रप्रभ www.jainelibrary.org
SR No.003899
Book TitleSansar aur Samadhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1991
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy