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नौकर उन्हें भी बटोर लाया। सेठ ने कहा, अरे देख ले, कहीं कुछ और पड़ा हो कोने में।
चौतरफ भभकती आग देखकर भी नौकर ने आज्ञा का सम्मान किया। पर लौटा चिल्लाता हुआ, गजब हो गया, साहब! गजब हो गया। सेठ बोला, क्या हो गया?
साहब! गजब हो गया। अरे, हो क्या गया? मैंने कहा, माल बच गया, मालिक खो गया। यानी?
नौकर ने कहा, यानी आपका लड़का तो भीतर ही रह गया। सामान बचाने के चक्कर में मैं तो भूल ही गया कि आपका बेटा कमरे में सोया है।
लोग चिल्लाये अरे ! सेठ का इकलौता लड़का तो भीतर ही जल मरा।
हंसना मत। क्यों कि ये कहानी किसी एक घर की नहीं, अपितु घर-घर की है। यह कहानी तो मन की प्रतिबिम्ब है। कहीं आप भी लोभी मन के पीछे पड़कर सामान को बटोरने में ही मत लगे रह जाना। माल को बचाकर भी क्या बचा पाये अगर मालिक को खो दिया तो?
अगर बटोरने की ही आदत बन गई है तो भी आखिर कितना बटोरेंगे। लोभी इंसान को कदाचित सोने के अरावली पर्वत और चांदी के हिमालय पर्वत भी मिल जाये, तो भी मन कहां भरता है! ___कदाचित सोने और चांदी के अगणित पर्वत हो जाये। होते नहीं हैं, किसी ने देखे भी नहीं हैं। सोने का अरावली पर्वत भला किसे मिलेगा देखने को! चांदी का हिमालय भी किसने देखा! पर क्या मालूम हो जाये तो? हो जाये, भले ही सोने और चांदी के गिरिराज हो जायें, तब भी लोभी आदमी को उनसे तृप्ति कहां हो पाती है! उसे तो कैलाश जैसे हजारों स्वर्ण-पर्वत भी मिल जायें, तो भी वह तो चाहता है कि मुझे इससे भी ज्यादा मिले। जितना मिला है, उससे भी कुछ और मिल जाय। इसी को कहते हैं लोभी यही है चाह का विस्तार।
कुछ और, कोई और, कहीं और की मांग ही लोभ की आधारशिला है।
आदमी की इच्छा और वासना आकाश जैसी है। आकाश की ओर देखते हैं, तो लगता है आकाश का अन्त तो यहीं पर है, क्षितिज पर ही है। पर कहां है उसका छोर! क्या आज
संसार और समाधि
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-चन्द्रप्रभ
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