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क्षणभंगुरता का आकर्षण
संसार एक आकर्षण है। जैसे पृथ्वी हर वस्तु को अपनी ओर आकर्षित करती है, वैसा ही है यह संसार। गुरुत्वाकर्षण संसार का निजी धर्म है। वह सबको अपनी ओर आकर्षित करता है, लुभाता है, खींचता है। वह आकर्षण और खिंचाव के लिए वाजबी-गैरवाजबी हर प्रकार का तरीका अपना सकता है। वह अपना घर हमेशा भरा-पूरा, फला-फूला देखना पसंद करता है। भले ही संयुक्त परिवार में मोर्चेबन्दी हो, खटपट हो, माथाकूट हो, पर अलगाववाद उसे सुहाता नहीं है। यही कारण है कि हजारों बार अकाल पड़ने के बावजूद, प्रलय-पर-प्रलय मच जाने के बाद भी संसार भरा-पूरा है। न आदि दंढ पाओगे, न अन्तऐसा है संसार का वृक्षा कितनी पहुंच है इसकी! धरती के हर कोने में इसकी टहनी लटकी है।
इसीलिए तो संसार ने सब को जोड़ने का अनूठा पुरुषार्थ किया है। भले ही मृत्यु यहां नग्न-नृत्य करे, फिर भी जीवन अपना अस्तित्व बखूबी कायम रखे हुए है। यहां केवल घटाव और भाग का ही गणित नहीं है, जोड़ और गुणा का भी गणित है। जोड़ और गुणा भी इतना कि हर अंक से हर अंक को जोड़ा जा रहा है, गुणाया जा रहा है। एकी को बेकी से और बेकी को एकी से, जोड़-गुणन चालू है। धर्मी को विधर्मी से और विधर्मी को धी से मिलाया जा रहा है। यह सारा संसार का कृतित्व है। आकर्षण उसका व्यक्तित्व है।
आपका दाम्पत्य जीवन संसार का एक रचनात्मक और सृजनात्मक कार्य है। जुदे-जुदे एकों को मिलाकर उसे दो का एक अंग इसी ने दिया है। जरा सोचिये, कहां पुरुष और कहां स्त्री! क्या दोनों में कोई संबंध है? दोनों में बड़ा भारी फर्क है। फिर भी उसने आकर्षण का ऐसा जादुई डण्डा घुमाया कि दोनों एक-दूसरे से मिल गये। और मिले भी ऐसे कि एक के बिना दूसरा स्वयं को अधूरा और सूना महसूस करता है। इतना ही नहीं, दोनों एक दूसरे के प्रति इतने अधिक समर्पित हो जाते हैं कि एक दूसरे के बिना जी भी नहीं सकते। प्यार की भांग जो पी लेते हैं। उनकी जिन्दगी अपने लिए नहीं, एक-दूसरे के लिए ही बन संसार और समाधि
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-चन्द्रप्रभ
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