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________________ ऐसे लोगों से क्या मिलें, जिनकी असली सूरत छिपी रहती है और नकली सामने आती है। बाहर की सूरत से, बाहर के चेहरे से तो लगेगा कि इससे बढ़कर आपके लिए और कोई नहीं है, पर पीठ पीछे देखो उसका असली चेहरा-अन्तरंगीय सूरत। दंग रह जाओगे। स्वयं को ठगा महसूस करोगे। आप विश्वास न कर पायेंगे उस चेहरे के प्रति। कहेंगे, कैसा विचित्र है यह संसार! अनुभव करेंगे संसार की शरबत भरी प्याली में जहर का घोल। मैंने कई बार ऐसा भी पाया कि असली चेहरे सामने आने के लिए लालायित रहते हैं, किन्तु उनके अगल-बगल घूमने वाले नकली चेहरे उन्हें दमित करते रहते हैं। यही नहीं, अपने नकलीपन का सेहरा भी असली चेहरे पर डाल देते हैं। असलियत, बिचारी बनी रहती है। घुटती रहती है। कली भीतर ही भीतर कुम्हला जाती है। किसे कहे वह अपने मन की व्यथा। यदि कहे भी, तो सिर-फुटव्वल की नौबत फिर तैयार। कहा सुनी, बात-बतंगड, गाली-गलौच, डांट-फटकार चालू। खैर! अपने पैरों पर अगर कोई कुल्हाड़ी चलाए, तो उसकी बला से, लेकिन मातहतों के पेट पर लात मारना कहां का इन्साफ है? मैं तो जब ऐसा देखता हूं तो मेरा दिल दर्द से कराह उठता है। जिन्दगी में मैंने ऐसा माहौल देखा है, और सबको व्यथित हुआ पाया है। किसी के दर्द में स्वयं को दी महसूस करना सबसे बड़ी आत्मसहानुभूति है। यह जीवन का आत्मीय धर्म है। किसी गिरते हुए को थामना, उसके आंसुओं को पोंछना, उसकी गलतियों को नजर अन्दाज करना- यही धर्म की सिखावन है। कई बार सोचा करता था कि हमें दुश्मनों से हर पल जागृत और सावधान रहना चाहिये। मैंने अपने प्रवचनों में भी कई दफे कहा कि दुश्मन से सदा बचो। अब मैं कुछ और ही अनुभव कर रहा हूं। अब मैं यों कहूंगा कि जितना दुश्मन से बचो, दुश्मन से चेतो, उतना ही घर वालों से भी। जो पीड़ा और तड़पन दुश्मन देते हैं, घर वाले कभी-कभी उससे बढ़कर दे डालते हैं। दुश्मन जाहिर रूप में दुश्मन हैं। पर घरवाले छिपे हुए दुश्मन हैं। वे ऐसे दुश्मन हैं, जिनके लिये हम कुछ बोल भी नहीं सकते हैं। हम उन्हें दुश्मन भी नहीं कह पाते। वे जहर के प्याले पर प्याले पिलाते हैं। हम उन्हें पीते चले जाते हैं। वे घंटे जहरीली होती हैं, पर हम कहां कह पाते हैं उन्हें जहरीली। कोई पूछे तो भी कहना पड़ता है- पानी पी रहा हूं। संसार और समाधि 41 -चन्द्रप्रभ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003899
Book TitleSansar aur Samadhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1991
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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