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________________ राजा की आंख तत्क्षण खुल गयी। क्या आपकी भी खुली? जो अमूढ़ हैं, उनकी खुली। मूढ़ के तो बात पल्ले भी न पड़ी। जिनकी आंख खुली, उन्हें धन्यवाद पर वे केवल बाहर की वस्तुओं से ही मेरे' का भाव न छोड़े। मेरे का संबंध भीतर से भी छोड़े। 'मेरे' का सेतु तोड़ने के लिए सूत्र याद करें मेरा मुझ में कुछ नहीं, जो कुछ है सो तेरा। तेरा तुझ को सौंपते, क्या लागे है मेरा। याद कर लो 'मेरा मुझ में कुछ नहीं। कुछ भी नहीं है यहां मेरा। बाहर का सम्मोहन तो मात्र ऐसा है, जैसे नौका में पानी भर आया। जो पानी को कहेगा, मेरा पानी। उसकी नौक डूब जाएगी। सोच लो, मेरा मुझ में कुछ नहीं। यह पानी मेरा नहीं है। ऐसा सोचेंगे, तभी तो आप पानी को नौका से बाहर उलीचेंगे। इसलिए जिन-जिन से भी सम्मोहन है, उन्हें अपने जीवन की नौका से पानी की तरह उलीच डालो। ___ जो लोग समझ जाते हैं कि यहां मेरा कुछ भी नहीं है, वे शरीर के लिए भी ऐसा नहीं कहते कि मेरा शरीर। शरीर है कहां मेरा! शरीर तो पांच भूतों का है, पृथ्वी का है, जल का है, तेज का है, वायु का है, आकाश का है। इसमें मेरा क्या है? ये सब तो पराये हैं। जब मैं नहीं था तब भी ये तो थे, जब में नहीं रहूंगा, तब भी ये रहेंगे। तब इसमें मेरा क्या है। ज्योंज्यों आप गहरे जाते जाएंगे त्यों-त्यों आप 'मेरे' से छूटते चले जाएंगे। लगेगा, यह देह मेरी नहीं है, ये विचार मेरे नहीं हैं, यह मन भी मेरा नहीं है। मेरा तो केवल साक्षी भाव है, द्रष्टाभाव है, खुद में खुद का चलना है। ___ एक जबरदस्त योगी हुए आनंदघन। उनके पास कोई महारानी आई। कहा, योगीराज! मेरा पति मुझसे नाराज है। कोई ऐसा तावीज दीजिये, जिससे मेरा पति मुझसे राजी हो जाये। आनंदघन ने कागज का टुकड़ा उठाया। उस पर कुछ लिखा और रानी को सौंप दिया। रानी ने उसे तावीज में डालकर हाथ में बांध लिया। संयोग ऐसा बना कि राजा रानी से राजी हो गया। दोनों का वापस मन मिल गया। रानी की सहेलियों को रानी के प्रति राजा का नम्र व्यवहार देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने रानी से उसका कारण पूछा। रानी ने कारण ताबीज बताया। ताबीज खोला। आनंदघन का लिखा कागज का टुकड़ा निकाला। पढ़ा तो रानी भी स्तब्ध रह गयी। लिखा था 'राजा रानी दोउ मिले उसमें आनंदघन को क्या?' संसार और समाधि 34 -चन्द्रप्रभ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003899
Book TitleSansar aur Samadhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1991
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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