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________________ बुद्ध ने देह को, राग को, रिश्तों को ही क्षणभंगुर नहीं बताया, अपितु आत्मा को भी क्षणभंगुर माना। आत्मा भी नश्वर मानी और आत्मीय भावों को भी नश्वर माना। कृष्ण ने आत्मा को ईश्वर-अंश कहा और ईश्वर तथा आत्मा को छोड़कर शेष सभी को क्षणभंगुर माना। महावीर ने बीच का रास्तनिकाला। महावीर यानी कृष्ण और बुद्ध के बीच का रास्ता। महावीर यानी कृष्ण और बुद्ध के बीच समन्वय का रास्ता ढूंढ निकालने वाला महापुरुष। उन्होंने आत्मा को माना, परमाणु को भी माना। उन सभी चीजों को उन्होंने मान लिया, जिनका संसार में अस्तित्व है। न केवल आत्मा सदा स्थायी है, अपितु पुद्गल-परमाणु पी सदा स्थायी है। वे प्रत्येक पदार्थ को सत्ता के रूप में शाश्वत मानते हैं, पर उसका रूप-परिवर्तन वे क्षण-क्षण स्वीकार करते हैं। भले ही महावीर की बात अधिक वैज्ञानिक हो, पर संसार से मोह तोड़ने के लिए क्षणभंगुरवाद अचूक है। विरोधाभास जरूर लगता है, पर जिस दृष्टिकोण से जो सिद्धान्त बना है उसे उसी दृष्टिकोण से समझेंगे, तो न तो विरोध महसूस होगा, न विरोधाभास। काश, यदि ऐसा हो जाता, तो संसार में कभी दर्शनों की लड़ाइयां नहीं होती, शास्त्रार्थ नहीं होते, पराजित दार्शनिक को जिन्दा दीवारों में नहीं चिना जाता। ___ एक बात हमेशा याद रखें कि यह जो संसार की घट्टी है, घूमती रहती है। धुरी थिर है। चाक के आरे घूमते हैं। जन्म और मृत्यु, जन्म और मृत्यु- यह संसरण चालू रहता है छिन-छिन। मौत हठात् नहीं आती, प्रतिपल आती है। जन्म भी हठात् नहीं होता, प्रतिपल होता है। जन्म और मृत्यु दोनों ही क्षणभंगुर हैं। और इसक्षणभंगुरता के बीच भी ध्रुवता कायम रहती है। यदि वह हट जाये, तो क्रम टूट जायेगा। बिना ध्रुवता के मृत्यु के बाद जन्म कैसे हो पायेगा? दीपक की लौ को आप गौर से देखिये। जो लौ बन गयी और ऊपर से उठ गयी, वह तो खतम हो गयी। नयी लौ आ रही है पर उस आने और जाने के बीच ज्योति अपनी स्वरुप कायम रखती है। इसलिए इसे ध्यान में रखें। सर्जन-विसर्जन के बीच में और पीछे रही स्थायिता को। . एक बात ध्यान में रखें कि संसार को चाहे शाश्वत माने या सपना, पर उसके प्रति किया गया मोह-व्यापार, राग-रिश्ते कभी अच्छे और सुखकर नहीं हुआ करते। यदि हों, तो समझ लें कि यह सच्चाई नहीं, खुजली खुजलाने से मिलने वाला सुख नहीं, सूखाभास है। इसलिए आभास पात्र है। संसार से मोह तोड़ने के लिए इसे अनित्य और अध्रुव मानें। संसार और समाधि 22 -चन्द्रग्रम Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003899
Book TitleSansar aur Samadhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1991
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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