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समाधि स्वास्थ्य का विपक्ष नहीं है। यह शरीर को एकत्रित ऊर्जा देकर स्वास्थ्यलाभ की दिशा में सहायिका बनती है। सांसों पर संयम करना, चित्त के बिखराव को रोकना
और इन्द्रियों की अनर्गलता पर एडी देना- यही तो समाधि के खास हेतु हैं और आयुवर्धन तथा जीवन-पोषण के लिए भी यही मजबूत सहारे हैं।
आसन शरीर का एकान्त कर्मयोग है। यह शरीर को श्रम का अभ्यासी बनाये रखने का दत्तचित्त उपक्रम है। जो तन्मयतापूर्वक काम करता है, वह कई तरह के साधनों को साध लेता है। अध्यात्म का अर्थ यह नहीं होता है कि सब कुछ काम छोड़-छाड़ दो। काम से जी-चुराना अध्यात्म नहीं है, अपितु काम को तन्मयता एवं जागरूकतापूर्वक करना अध्यात्म की जीवन्त अनुमोदना है। निष्क्रियता अध्यात्म की परिचय-पुस्तिका बनी भी कब! अध्यात्म का प्रवेश-द्वार तो अप्रमत्तता है। प्रमाद छोड़ कर दिलोजान से काम करते रहना इस कर्म-भूमि का महान् उद्योग है। ___ उद्योग अर्थात् उद् + योगऊंचा योग। उद्योग की बुनियाद श्रम है और श्रम करना ऊंचा योग है। अगर श्रम ठीक है, तो उद्योग करना कहां पाप है! यह तो जीवन की साधना का एक जरूरतमन्द पहलू है। अपनी मेहनत की रोटी खाना पौरुष का पसीना निकालना नहीं है, वरन् पसीने के नाम पर उसका उपयोग करते हुए, उसे जंग से दूर रखना है। ____ अपने हाथों से तन्मयतापूर्वक श्रम करना पापों से मुक्ति पाने का आसान तरीका है। दूसरों द्वारा कोई काम करने की बजाय स्वयं करना अधिक श्रेयस्कर है। खाते-पीते, उठतेबैठते, सोते-जागते हर समय होश रखना स्वयं को गृहस्थ-सन्त के आसान पर जमाना है। ध्यान-योग की यही व्यावहारिकता है।
दिन संसार है; रात उससे आंख मुंदना है। दिन में अपनी वृत्ति फैलाओ, ताकि जीवन की गतिविधियां ठप्प न हो जाए और सांझ पड़ते-पड़ते सूर्यकिरणों की तरह उनका संवरण कर लो। यही चित्त का फैलाव और संकोच है। यदि रात को स्वप्न-मुक्त निद्रा भी ली, तो भी वह चित्त की एकाग्रता ही है। ध्यान का काम स्वप्न-मुक्त/निर्विकल्प चित्त का प्रबंध है। जब किसी आसन पर बैठे बिना ही बिना प्रयास किये ध्यान हो जाय, तो ही वह जीवन का इंकलाब है। जब ध्यान अभ्यास और सिद्धान्त से ऊपर जीवन का अभिन्न अंग बन जाये, तभी वह अन्तरमन में परमात्मा के अधिष्ठान का निमित्त बनता है।
स्वयं के द्वारा-स्वयं-में देखने की प्रक्रिया स्वच्छ ध्यान है। स्वयं से मुलाकात हो जाने का नाम ही आत्मयोग है। ध्यान है अन्तर्यात्रा। वह भीतर का बोध कराता है। मन का हर संसार और समाधि
-चन्द्रप्रभ
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