SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 157
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ध्यान के द्वार पर दस्तक दें। परम प्रसत्रता का समय ही ध्यान करने का सही समय है, फिर चाहे वह समय रात से जुड़ा हो या प्रभात से। ध्यान हमारे जीवन का अमृत-मित्र बन जाये, तो ही ध्यान का सही आनन्द है। श्वांसों का प्रेक्षण, चिन्तन का अनुपश्यन ही ध्यान नहीं है, ध्यानपूर्वक खाना, सोना, चलना, बोलना-सब ध्यान ही है। कोई भी क्रिया ध्यान-शून्य न हो। किसी भी क्रिया को करते समय मानसिक एकाग्रता एवं शक्ति-घनत्व का प्रयोग हो। ध्यान हमारे अस्तित्व का अंग तभी है, जब उसके बिना जीवन विरहिनी की कविता बन जाये। चित्त तो भीतर का चक्का है। आन्तरिक एकाग्रता साधने के लिए उसकी तेजतर्राहट रोकनी जरूरी है। उसकी छितराती वृत्तियों और चंचलता पर अंकुश लगाने का नाम ही एकाग्रता है। एकाग्रता में पड़ने वाली दरारों को मिटाने के लिए चित्त-शुद्धि की पहल अनिवार्य है। चित्त के रास्ते से संस्कारों के कई कारवां गुजरते हैं। संस्कार-स्मृति-संकर न कर पाये, यह ध्यान रखना बेहद जरूरी है। चित्त को साफ-सुथरा करने के लिए वैर की बजाय प्रेम को बढ़ावा दें। स्वयं के दोषों को याद कर आंसुओं का धौला ताज न बनाकर स्वयं के गुणों को सींचने का दिलोजान से प्रयास करें। कषाय, वासना, डर को भीतर न दबाकर उनका रेचन करें। किसी पर पत्थर फेंकने की बजाय माला के मनके चलाएं। उन निमित्तों से भी दूर रहें, जिनसे चित्त मलिन/विचलित हो। ऊर्जा को सही दिशा में योजित करें। चित्त को सही दिशा में लगाना ही जीवन का रचनात्मक एवं सृजनात्मक उपयोग है। ___ चित्त की विशुद्ध स्थिति में ही आत्मा की परमात्म-शक्ति मुखर होती है। जरुरत है प्रसत्रतापूर्वक चित्त को मांजने की, जीवन में सौहार्द एवं सौजन्य को न्यौता देने की। बाहर घूमती चेतना का समीकरण करें। सर्वतोभावेन ध्यान में रसमय हो जाएं, समाधि हमें प्यार से छाती से लगाएगी। पहले टपकेंगी समाधि की बूंदें, फिर आएगी बरसात, एक दिन ऐसा होगा जब डूबे मिलेंगे समाधि की बाढ़ में। किन्तु, ध्यान-समाधि के इस वृक्ष की हरी छांह को पाने के लिए हमें सर्वप्रथम चित्त को उस दलदल से निकालना होगा, जिसका संबंध असमाधि एवं भटकाव से है। अन्तरजगत् की विकृतियों को सभ्यता और संस्कृति का पाठ पढ़ाना ही चित्त-शुद्धि का उपक्रम है। हम सिखाएँ चित्त को संस्कृत होना। संस्कृत पढ़ना अलग चीज है, पर संस्कृत संसार और समाधि 146 -चन्द्रप्रम Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003899
Book TitleSansar aur Samadhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1991
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy