SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 156
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मनुष्य के प्राण किसी तोते में न रहकर तिजोरी में अटके पड़े है। वासना से ही तो चित्त को भिगोया है। निचोड़ो जरा कसकर चित्त को उसकी सुकावट के लिए। शाश्वत के घर प्रवेश पाने के लिए विचार-शून्यता अनिवार्य है। मैं हिन्दु, मैं मुसलमान, मैं पुरुष, मैं स्त्री, मैं सुखी, मैं दुःखी, मैं त्यागी, मैं भोगी – ये सब भीतर की ही विचार- रेखाएं है। हर रेखा दरार की शुरुआत है और हर दरार उपद्रव की वाचक है। विचार शून्यता / चित्त- विशुद्धता अन्तर में विराजमान हो जाए, तो उपद्रव को उल्टे पांव खिसकना ही होगा। विचार/संस्कार उस समय ज्यादा उभरते हैं, जब कोई शान्त बैठने की चेष्टा करता है। ध्यान शान्त चित्त बैठने की ही पहल है। ध्यान की घड़ियों में आने वाले विचार सोयेसोये दिखने वाले स्वप्न-चित्रों से भिन्न नहीं है। स्वप्न - मुक्ति के लिए चित्त का परिचयपत्र पढ़ना जरूरी है। जो चित्त को परखने की कोशिश करता है, उसके सपने लेने की आदत खुद-ब-खुद ढहने लगती है । चित्त ही चुप्पी साध ले, तो स्वप्न भटकाव कहां ! यद्यपि सपने दिनभर के दुःखी जीवन में दिखने वाली रजनीगंधा इन्द्रधनुषी रंगीनियां हैं, पर सपने के लड्डुओं से पेट नहीं भरता। स्वप्न सत्य नहीं, मात्र विचारों के द्वन्द्व का सागरकी - लहरों में नजर - मुहैय्या होने वाला प्रतिबिम्ब है। ध्यान का प्रभाव मन पर जम जाये, तो चंचलता हिमाच्छादित हो जायेगी, स्थिरता आंख खोल लेगी। आत्म-शुद्धि अन्तर्यात्रा का सधा कदम है। आत्म-शुद्धि ही जीवन-शुद्धि है । चित्तशुद्धि जीवन-शुद्धि की अनिवार्य शर्त है। काया कल्प के पीछे पड़ने वाले लोग जीवनकल्प पर विचार भी नहीं करते । शरीर, विचार और मन- - तीनों की शुद्धि ही आत्म- -शुद्धि की तैयारी है। स्वयं का पात्र मंज जाये, तो ही पीयूष-पान का मजा है। मानसिक एकाग्रता के लिए जलधारा, दीप- ज्योति, सूर्य- किरण, परमात्म- प्रतिमा, शब्द-मंत्र वगैरह प्रतीक चुने जाते हैं। ये आलम्बन सारे जहान में भटकाव से हटाव में मददगार हैं। परमात्मा की परमशक्ति/शक्ति की सम्भावना स्वयं व्यक्ति के अन्दर है । भीतर का दीपक जलाने के लिए किसी प्रकार के प्रबंध की जरूरत नहीं है। वह तो ज्योतित ही है। दीपक के इर्द-गिर्द आवरण है। अनावरण करें दीप का, रोशनी बहेगी आर-पार । ध्यान स्वयं को बेनकाब करने का ही प्रयत्न है। ध्यान की सिद्धि के लिए चित्त की प्रसन्नता अपरिहार्य है। दुःखी व्यथित आदमी ध्यान में व्यथा-कथा की ही प्रस्तावना लिखेगा। जब स्वयं को खुश महसूस करें, तभी संसार और समाधि 145 - चन्द्रप्रभ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003899
Book TitleSansar aur Samadhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1991
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy