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के पार। विदेह की अनुभूति घर के दरवाजे का वह छेद है जिससे अन्तर-जीवन के कक्ष में सजी मौलिकताओं को नजर मुहैया किया जा सकता है। शरीर जड़ है और ध्यान के लिए जड़ के प्रति होने वाले तादात्म्य की अन्त्येष्टी अनिवार्य है। मन में शब्दों की भारी भीड और भारी कोलाहल है। जो अपने मन से ऊपर उठ जाता है वह सबसे मन से ऊपर उठ जाता है। मन का पारदर्शी सिर्फस्वयं को ही शरीर, वचन और मन से अलग नहीं देखता, वरन् दूसरों के जीवन का भी आत्म-दृष्टि से मूल्यांकन करता है। अन्तर की इस वैज्ञानिक पहल का नाम ही भेद-विज्ञान है।
ध्यान हमारी आंख है। जिसकी हथेली से ध्यान छूट गया उसका जीवन इकाररहित 'शिव' है। जिसकी आंख ही फूट गई है उस बेचारे को तो अन्धा कहना ही पड़ता है, पर बड़ा अन्धा तो वो है जिसने ध्यान की आंख में लापरवाही की सुई चुभा दी है। __ आज सुबह की बात है। एक सज्जन मेरे पास आये। कहने लगे. मैं बीस साल से ध्यान करता हूं वह भी रोजाना चार-पांच घण्टे। मेरे गुरुजी ने मुझे ध्यान सिखाया है। मैंने पूछा, वह कैसे? उसने झट से पद्मासन लगाया और स्वयं को अकम्प/अडोल बना लिया। मैंने कहा अगर आपका चित्र खींचा जाए तो लाजवाब होगा। किन्तु वह ध्यान कैसा जो व्यक्ति को पत्थर की मूर्ति मात्र बना दे।
वे झिझके। मैंने कहा, पहली बात; ध्यान करते बीस साल हो गये, किन्तु ध्यान हुआ नहीं। करना अभ्यास है। बीस साल तक पढ़ने के बावजूद छात्र ही रह गये, गुरु न बन पाये। दूसरी बात; ध्यान घंटों के दायरे में नहीं आता। चार-पांच घंटों तक जो ध्यान करते हैं, वह भीतर का उत्सव बनकर नहीं, वरन् बाहर से भीतर लादते हो। ध्यान में आठों पहर हो। जब भी कोई पूछे तुम क्या कर रहे हो, उत्तर आना चाहिये-ध्यान में हूं। पद्मासन, श्वांसप्रेक्षा, ज्योति-केन्द्र में चित्त स्थिरता, दो घंटे की बैठक यह सब तो सुबह-शाम ली जाने वाली दवा को गोली मात्र है, ताकि उसको तरंग दिन-भर/रात भर रहे।
मुझे ध्यान से उज्ज्वलताएं मिली है; पर मैं उस ध्यान में डूबा रहता हूं, जो मुझे मुरझाए नहीं, हुलसाए।
ध्यान सिर्फ शरीर को अकड़ कर बैठाना नहीं है, श्वांस पर नजर को टकटकी बांधना नहीं है। ध्यान रोजमर्रा की जिन्दगी से जुदा नहीं है। दफ्तर में काम करना, दुकान में कपड़ा नापना, घर में रसोई बनाना सब में एकाग्रता के गीत सुनाई देते हैं। ध्यान एकाग्रता की निर्मित
संसार और समाधि
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-चन्द्रप्रभ
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