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________________ को बसाना है। जिन्दगी के कारवां में कितने ही हमसफर बन जाते हैं और कितनों के लिये विरह की कविताएं रच जाती हैं। इस गुजरने और बिछुड़ने के बीच होने वाले भावों को स्वयं के चित्त पर छायांकित न करने का नाम ही साधना है। ___ ध्यान सिर्फ उन लोगों के लिये नहीं है जिनके जीवन का वृषभ बूढा हो चुका है। ध्यान के लिए चाहिये ऊर्जा। यौवन ऊर्जा का जनक है। ध्यान और यौवन का जिगरी संबंध है। जो अपनी जवानी का हाथ ध्यान के हाथ से मिला लेता है, उसके सामने संसार का हर तूफां परास्त है। तनाव के बीज जवानी में ही बुए जाते हैं। शैशव तनाव-के-पार है। ध्यान मनुष्य को बुजुर्ग बनाना नहीं है; ध्यान स्वयं की शैशव में वापसी है। परमात्मा शिशु के ज्यादा पास है। उसे बेहद प्रेम है बच्चों से। जीवन को सदैव शिशु की तरह निर्मल, निश्छल और सरल बनाये रखने का उपनाम ही सहज योग है। यह वह योग है जिसे साधने के लिये दुनिया भर के योगों की पगडंडियां हैं। सहजयोग को साधने के लिये मनुष्य स्वयं को दूसरे के प्रभावों से मुक्त करे। मैं दूसरों को प्रभावित करूँ- यह तृष्णा ही संसार की नींव को और चूना-सिमेन्ट पिलाती है। प्रभाव सहजता से किलकारियां भरे तो ही वह टिकाऊ बन पाता है। ऊपर से लादा गया प्रभाव अन्तरंग को अभिव्यक्ति नहीं, वरन् ओहदे या पैसे का प्रताप है। प्रभाव मन की तृष्णा है और स्वभाव तृष्णा का अभाव है। ध्यान मन से ऊपर उठने की बेहतरीन कला है। आत्म-जागरण मन से ऊपर उठना है, विचार से ऊपर उठना है, शरीर से ऊपर उठना है। चैतन्य-दर्शन सबके पार है-मन के, वचन के, शरीर के। शरीर आत्मा के लिये है, ऐसा नहीं। आत्मा की उपस्थिति के कारण शरीर नहीं है, अपितु आत्मा की उपस्थिति विदेह के निमित्त है। जहां देह की स्वस्थ अनुभूति है, वहां स्वास्थ्य नहीं है।असली स्वास्थ्य-लाभ तो वहां है, जहां देह के अनुभव की कोई गुंजाइश ही नहीं है। मित्र-साधक मुझसे मशविरा करते हैं चैतन्य-दर्शन के लिये, अनन्त की अनुभूति के लिये। मेरी सलाह रहती है स्वयं को ऊपर उठाने की। पात्र की चमक जरूर पाना चाहते हो, किन्तु इसके लिये पहले उसे मांजने की पहल की जानी चाहिये। स्वयं को ज्योतित देखने का एक मात्र उपाय यही है कि अपने आपको विदेह में, निर्वचन में, अमन में झांको। पारदर्शी हुए बगैर स्वयं तक न पहुंच सकोगे। मुझे भी जानना चाहो, तो देह-के-पार देखो। क्योंकि मैं देह नहीं हूं, मैं देह में हूं, पर देह नहीं हूं। स्वयं को भी ऐसे ही देखो देह-के-परदोंसंसार और समाधि 138 -चन्द्रप्रभ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003899
Book TitleSansar aur Samadhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1991
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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