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________________ भगवत्ता को पहचानो। भगवत्ता को फैलाओ। भगवान आपको आह्वान कर रहा है सौन्दर्यमय शिवस्कर सत्य के लिए। अन्तरपाट पर विराजित भगवान् को, अपने आपको पहचानना ही अध्यात्म है। अध्यात्म है आत्मा में, अपनी अनुभूति में। मन संसार में रहने का अभ्यस्त है। वह संसार की गरिमाएं बखानेगा। पर संसार एकत्व की अनुभूति नहीं हो सकेगा। वह होगा द्वित्व की अनुभूति । साक्षीभाव प्रगाढ़ हो जाये, तो संसार सिर्फ प्रतिक्रिया लगेगा। साधना का पहला सोपान प्रतिक्रिया से विमुक्ति है। संसार में वह सब कुछ मिल सकता है, जिसकी मन में ठानी है। पर वह कहां से मिलेगा जो संसार में नहीं है। 'मैं मेरे पास मिलेगा, 'तू' में नहीं। यहां हर कोई 'मैं' है, कोई ‘तूं' नहीं है। मैं मेरा हूं। तूं तेरा है। तूं मेरा नहीं हो सकता, तो मैं तेरा कैसे हो सकता हूं। मैं तुम्हें मेरा मानूं और तू मुझे तेरा माने - यह एक भारी भरकम भूल है। इस भूल को सुधार लो तो मैं समा जाएगा मैं में। सत्य तो यह है कि मैं तुमसे भिन्न नहीं हूं और तुम मुझ से भिन्न नहीं हो। मैं में मैं नहीं है और तूं में तूं नहीं मैं तूं मन की राजनीति है। मैं भी एक अस्तित्व हूं और तूं भी एक अस्तित्व है। दोनों रमण करें अपने अस्तित्व में। जो अपने में रहेगा, उसके लिए तूं तो खोएगा ही, मैं भी फिसल जाएगा। मन के फितूर किस काम के स्वयं के मार्ग में। जो व्यक्ति अपना अस्तित्व दूसरे में ढूंढ रहा है, वह आत्मवंचना के कगार पर है। बाहर आकाश ही आकाश है और आकाश का कहीं कोई छोर नहीं है। हर क्षितिज के पार क्षितिज मिलेगा। आकाश का कोई समापन नहीं है। वहां न दुराहा है, न चौराहा । वह सपाट है। शुरूआत भीतर है, अपने अन्दर है। अपने भीतर झांक लो। यह स्वयं के लिए किया जाने वाला प्रयास ही स्वार्थ है। अगर बन सको तो स्वार्थी बन जाना। परार्थ की पगडंडिया छूटे तो कतराना मत। स्वार्थ की साधना जिंदगी -कीसाधना है। स्वार्थ की साधना एक बारीक साधना है। परार्थ संसार की लहर है । स्वार्थ अपने लिए लालच नहीं है, वरन् स्वयं में बसेरा करना है। आत्म-स्थिति स्वार्थ है। स्वयं के लिए स्वयं को पहचानना, स्वयं में रम जाना यही है स्वार्थ । परार्थ है पर में जुड़ जाना । स्वयं में होने वाली स्थिति ही स्वास्थ्य लाभ है। रोग मुक्ति स्वास्थ्य नहीं, विदेहअनुभूति स्वास्थ्य है। संसार और समाधि Jain Education International 114 For Personal & Private Use Only —चन्द्रप्रभ www.jainelibrary.org
SR No.003899
Book TitleSansar aur Samadhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1991
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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