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________________ उपदेश क्यों? उसे प्रकाश बताओ। अन्धकार स्वयं समझ में आयेगा। गलत को छोड़ने के लिए इतना जोर मत दो, जितना ठीक को अपनाने के लिए। अंधेरे को कब तक खदेड़ोगे। दीया जलाओ; दीप-प्रज्वलन ही अन्धकार के निष्कासन का आधार है। किसी को यह मत कहो कि तुम क्रोधी हो, कामी हो, चोर हो। उसे यह कहो कि क्षमा तुम्हारा व्यक्तित्व है, भाईचारा तुम्हारा आदर्श है, ईमानदारी तुम्हारी इज्जत है। निषेधात्मक पहलुओं को भूलकर विधेयात्मक पहलुओं पर प्रकाश डालना विश्वकल्याण का सही सूत्र है। 'स्टोप थीकिंग' की बजाय 'टॉप थीकिंग' आम जीवन के उज्ज्वल भविष्य का सही रास्ता है। सत्य का मायना है स्वयं के प्रति ईमानदार होना। स्वयं का सत्य स्वयं में ढूंढना होता है। प्रश्न अपने आप से करें और उत्तर अपने आप से पाएं। सत्य स्वयं की अनुभूति है और सबकी अनुभूति निजी होती है, आम नहीं। अनुभव गूंगे का स्वाद है। वह हृदय की आवाज है। उसका अनुभव हृदय से होता है। आंख से बहते आंसू आंख से समझे जा सकते हैं, जुबान या कान से नहीं। बोल संकरे होते हैं और अनुभव गहरे। अध्यात्मजीवी पुरुष को ध्यानरत आंखों से उमड़ने वाले आंसू भीतर की खुमारी है। अन्तर्यामी ही आंक सकता है मोल उस अमृतस्राव का। ___अनुभवी की गहराई तो राम की अभिव्यक्ति है। राम जीवन्त है। यह रमण का प्रतीक है। राम रमेश-महेश का सार है। राम का आदि स्रोत ऋषभ है और उसका उपसंहार महावीर। राम अध्यात्म है। राम का विलोम मार है। मार संसार है। मन अगर राम बन जाये, तो वह जीवन की जीवन्तता हो जायेगी। मन का देह से लगाव संसार है और आत्मा से संयोजन संन्यास है। . राम, कृष्ण, महावीर, बुद्ध ये अमिताभ हैं। इन्हें खोजना हो, ऐसी बात नहीं है। सत्य समाधि सधेगी, तो हम वही हो जायेंगे, जो ये हैं। यदि यह माने कि हमारे भीतर भगवान हैं, तो इसका मतलब साफ है कि हम स्वयं भगवान हैं। यदि कोई अपने आपको भगवान कह भी देता है, तो इसका मतलब है उसने वह कहा है जो वह भीतर से है। भीतर विराजे भगवान को उसने अपने नाम के साथ रसमय किया है। जीवन और जीवन से जुड़े सारे परिवेश के साथ भी यदि भगवान को जोड़ सको, तो यह आपका सौभाग्य है। अपनी संसार और समाधि 113 -चन्द्रग्रम Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003899
Book TitleSansar aur Samadhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1991
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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