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________________ घुटन का आत्मसमर्पण मनुष्य परम श्रेय के प्रति समर्पित है। जीवन में प्राप्त होने वाली हर सफलता पर उसे गर्व है, तो असफलता पर खेद भी। मेहनत करने के बावजूद जब व्यक्ति को असफलता का सामना करना पड़ता है, तब उसका अपने-आपसे खींझना स्वाभाविक है। __मनुष्य खड़ा है पुरूषार्थ और भाग्य के दोराहे पर। वह सुख और सफलता को भगवान् का अमृत मानता है; किन्तु दुःख और असफलता को वह भगवान् का वरदान मानने के लिए तैयार नहीं है। लड़ रहा है वह अपने भाग्य के साथ, पर यदि वह भाग्य का आत्मीय बन जाए, तो उसके साथ उसकी लड़ाई समाप्त हो सकती है। प्राप्त कर्त्तव्य में पुरूषार्थ का उपसंहार ही भाग्योदय है। मनुष्य सुख सुविधाओं का इतना चाही है कि हर असफलता/प्रतिकूलता उसका जीना हराम कर देती है। जीवन का यथार्थ सुख तनाव-शून्यता में है। किसी कार्य में असफल होना पहली पराजय है, मगर उसे मन में रहने के लिए न्यौता देना दूसरी पराजय है। पहली पराजय को भाग्य को चुनौती कहा जा सकता है; किन्तु दूसरी पराजय प्रज्ञा-दृष्टि और जीवनबोधि की कमी को द्योतक है। यों तो व्यक्ति आठों याम कुछ-न-कुछ सोचता रहता है। सोच चाहे चाहा हो या अनचाहा, मेहनबाजी करवा ही जाता है। जीवन-दर्शन के प्रति सोच तब गर्भज होता है, जब असफलताएं ठेठ हत्तन्त्री को झकझोर डालती है। असफलता जीवन-चिन्तन की जननी है। जीवन में क्रान्ति चरम वेदना के क्षणों में ही घटित होती है। जब व्यक्ति चारों तरफ से असहाय, अशरण और निराधार खड़ा हो, उस समय थोड़ी सी सूझ भी डूबते को तिनके का-सहारा बनती है। असफलता पर असफलता पाने वाले सम्राट के लिये मकड़ी की सोलह बार फिसलन और आखिरी बार घर-जालकी-बेहदी-पर दस्तक सफल प्रेरणा का लाजवाब जीवन्त सूत्र सिद्ध हुआ है। संसार और समाधि 105 -चन्द्रप्रभ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003899
Book TitleSansar aur Samadhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1991
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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