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बात हो गई ?' क्या मेरी बात इतनी बुरी लग गई?
गाँधी ने मुस्कुराकर कहा—'नहीं पटेल, ऐसी बात नहीं है । बात दरअसल यह है कि तुम्हारी बात ने मुझे जीवन का सूत्र दे दिया। तुमने कहा कि दस और पंद्रह में क्या फर्क पड़ता है, तभी मेरे मस्तिष्क ने कहा कि जब दस और पंद्रह में कोई फर्क नहीं पड़ता तो पाँच और दस में कौन-सा फर्क पड़ेगा !'
जो आदमी अपने जीवन में निरंतर अपरिग्रह पर सोचता रहा हो, चिंतन करता रहा हो, वही व्यक्ति उदार निर्णय कर सकता है। बाकी तो हर आदमी दस की बजाय पंद्रह ही खाना चाहेगा। जो व्यक्ति निरंतर अपरिग्रह पर सोच रहा हो, वही कहेगा कि जब दस और पंद्रह में कोई फर्क नहीं पड़ता तो दस और पाँच में क्या फर्क पड़ता है !
इस घटना का अपना सौंदर्य है। आखिर इस तरह की बात वही कह सकता है जो व्यक्ति निरन्तर अपरिग्रह और अनासक्ति के बारे में चिंतन-मनन करता रहा हो । संदर्भ चाहे सत्य का हो, चाहे शांति का, कल्याण का हो या सौंदर्य का जीवन में सदा वही सब कुछ मुखरित होता है, जो कि हमारे सोच और स्वभाव में रहा है। स्वस्थ सोच के सार्थक सूत्र
जीवन को सहज सुकून देने के लिए जिस पहले बिन्दु की आवश्यकता होती है वह है हमारे सोच का, हमारे विचारों का सकारात्मक होना, संतुलित होना, समग्र होना। नकारात्मकताओं को हर हाल में नकारा जाना चाहिए और सकारात्मकताओं को हर हाल में स्वीकारा जाना चाहिए । 'नेगेटिविटी' हर हाल में दुःखदायी होती है, मनोबल को कमजोर करती है, उत्साह और उमंग को ठण्डा करती है। हम निराशा की बजाय मन में आशा का संचार करें, घुटन की बजाय उत्साह और उमंग को अंतरमन में प्राण-प्रतिष्ठित करें । सोच के प्रति सम्यक् जागरूक न रह पाने के कारण ही हम बहुधा अंतरद्वन्द्व से घिर जाया करते हैं, तनाव के तिलिस्म में उलझ जाया करते हैं, क्रोध और अहंकार के विनाशकारी बीजों को बो बैठते हैं।
यदि हम मन की हवाई कल्पनाओं में उड़ते रहने की बजाय अपनी सोच को सच्चाई का सामीप्य दे सकें, तो मन की उधेड़बुन को शांत करने में बहुत बड़ी मदद मिल सकती है। कोई भी व्यक्ति अगर अपनी सोच और दृष्टि को उदात्त और स्वस्थ सोच के स्वामी बनें
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