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पौरुष जगाएँ, भय भगाएँ
गीता के इस श्लोक का मुझ पर बड़ा उपकार रहा । इसी से उऋण होने के लिए ही मैंने दो वर्ष पूर्व श्रीमद्भगवद्गीता पर विशेष प्रवचन भी दिये । अगर व्यक्ति पुरुषत्वहीन हो जाए, पौरुष शिथिल पड़ जाए तो उसके चित्त में भय की ग्रंथि बन जाती है । एक बार भय की ग्रंथि निर्मित हो जाये तो आदमी छोटा-सा निमित्त पाकर भी घबरा जाता है । तब आदमी निरन्तर भय का ही चिंतन करता है। वह इहलोक और परलोक के भय से ग्रस्त रहता है; वह मृत्यु और वेदना के भय से ग्रस्त रहता है । इसने मुझे ऐसा कह दिया - यह मुझे ऐसा कह देगा - आदमी इन्हीं कल्पनाओं में विचरण कर भयग्रस्त होता रहता है ।
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भय, डर, खौफ को दूर करने के लिए हम अपने सोए पौरुष को जगाएँ । जीवन में महाभारत का वातावरण बनना स्वाभाविक है, मनुष्य के रूप में किसी भी अर्जुन का विचलित होना भी नैसर्गिक है । हार उसी समय हमारे हाथ में चली आती है, जैसे ही हम किसी भी शंका- आशंका से घिर जाते हैं। वहीं जैसे ही सामना करने का साहस लौट आता है, जीत बिन माँगे ही झोली में चली आती है । भय मात्र मन की दुर्बलता है । हम जीवन में साहस, शौर्य, ऊर्जा, उत्साह का संचार करें, सचमुच, अगले ही पल आप एक बहादुर और शक्तिवान बन चुके हैं ।
निरपेक्ष रहें निंदा के भय से
आदमी को एक और जो सबसे बड़ा भय सताता है, वह है— निंदा का भय, लोक-लाज का भय । वह डरता है कि समाज में उसकी निंदा न हो जाए; अगर मैंने ऐसा कर लिया तो लोग क्या कहेंगे, इसीलिए तो आदमी पाप हमेशा छिपकर करता है और पुण्य हमेशा खुलकर करता है । वह सोचता है कि खुलेआम पुण्य करने से उसकी स्तुति होगी, अभिनन्दन होगा । पाप छिपकर करता है कि कहीं कोई देख न ले । जबकि मैं यह कहना चाहूँगा कि आदमी एक दफा पाप भले ही सरेआम कर ले, पर पुण्य सदैव छिपकर करे । किये हुए पाप को सरेआम स्वीकार कर लिया, तो पाप का प्रायश्चित हो गया । छिपकर करने से पाप दुगुना हो जाएगा। ज़हर चाहे छिपकर पियो या सबके सामने, वह अपना असर तो दिखाएगा ही ।
अच्छा होगा कि आदमी पुण्य छिप कर करे, ताकि पुण्य का स्तुतिगान न हो, वह हमारा कीर्तिमान न बने वरन् पुण्य भी हमारे जीवन के उद्धार का आधार
लक्ष्य बनाएँ, पुरुषार्थ जगाएँ
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