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________________ उसके स्वरूप पर ध्यान देगा होगा; उसकी अन्तर्-अवस्था को बदलने के लिए विचार करना होगा और विवेकपूर्वक मनन करके उन आयामों को खोजना होगा, जिनसे कि हम स्वस्थ, सौम्य और सुंदर चित्त के स्वामी बन सकें। चित्त के विविध रूप क्यों? प्रश्न है : आखिर चित्त के ये अच्छे-बुरे विविध रूप क्यों बन जाते हैं ? क्या इस उठापटक से मुक्त होने का कोई रास्ता है ? व्यक्ति का सही रास्ता तो उसके द्वारा विवेकपूर्वक आत्म-निरीक्षण करने से ही उपलब्ध होगा, लेकिन हम इतनी बात अवश्य जान लें कि हर व्यक्ति के चित्त में दो तरह के परमाणुओं का प्रवाह और प्रभाव परिलक्षित होता है और ये दोनों प्रवाह हमारे व्यक्तित्व की आंतरिक गहराई में प्रवहमान हैं । ऐसा समझें कि हमारे भीतर दो तरह के जल-प्रपात बनते हैं, उनमें से एक है संक्लेश का और दूसरा है शांति का । जब चित्त की संक्लेशयुक्त स्थिति होती है, तो व्यक्ति क्रोधित, खिन्न, उग्र अथवा उदास हो जाता है, वहीं चेतना की शांत-सरल स्थिति में कोमलता, मधुरता और प्रसन्नता की फुलवारी खिली हुई रहती है। क्लेश-संक्लेश की स्थिति अस्वस्थ चित्त का परिणाम है, वहीं शांत-ऋजु हृदय स्वस्थ चित्त का। हमारे भीतर क्लेश-संक्लेश किस स्तर तक चलता है यह जानने के लिए आप एक छोटा-सा प्रयोग करें । किसी शांत-एकांत स्थान में बैठकर कम-से-कम दस मिनट तक अपनी श्वास की स्थिति का निरीक्षण करें कि वह संतुलित है या असंतुलित, लयबद्ध है या अव्यवस्थित । एक स्वस्थ व्यक्ति एक मिनट में १३-१४ श्वास ग्रहण करता है। यदि यह मात्रा इससे ज्यादा है, तो मान लो चित्त की स्थिति अव्यवस्थित है; क्लेश-संक्लेशयुक्त परमाणुओं का ज्यादा जोर है । इस स्थिति को सुधारने के लिए आप संबोधि-ध्यान का एक छोटा-सा प्रयोग करें : ___ पहले दस मिनट तक मंद गति के गहरे श्वास-प्रश्वास पर अपने चित्त को स्थिर और एकाग्र करें । अगले दस मिनट में शरीर की अन्तर्यात्रा करें और प्रज्ञापूर्वक यह देखें कि शरीर के किस अवयव में कैसी अनुकूल या प्रतिकूल संवेदनाएँ उठ रही हैं । हम अपने ध्यान और चेतना को वहाँ केंद्रित करें। हम वहाँ तब तक टिकें, जब तक उस संवेदना से उपरत न हो जाएँ । हम इस प्रक्रिया के तीसरे चरण में अपने मनोमस्तिष्क का निरीक्षण करें और वहाँ चित्त में उठ रहे किसी भी प्रकार के क्लेश-संक्लेशयुक्त संस्कार के द्रष्टा बनें । भीतर जो भी उठे, उसके प्रति बुरे-भले का कोई भी भाव न हो। हम उसे केवल बोधपूर्वक देखने वाले बनें । आप ताज्जुब करेंगे कि हम जैसे संवेदनाओं कैसे करें चित्त का रूपान्तरण ওও Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003895
Book TitleAise Jiye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2001
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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