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________________ नौकर के द्वारा फूट चुकी काँच की एक गिलास भी आग-बबूला कर देती है । वहीं जहाँ घर में उद्विग्नता का वातावरण बना हुआ हो, द्वार-चौखट पर किसी आगंतुक के द्वारा बजने वाली घंटी दो पल में ही उस सारे वातावरण को बदल डालती है और इस तरह क्रोध-उलाहना और खिन्नता से संत्रस्त व्यक्ति हंसते-मुस्कुराते हुए आगंतुक के स्वागत के लिए प्रस्तुत हो जाता है । कितना विचित्र है मनुष्य के चित्त का यह स्वरूप ! पशुता और देवत्व : मन के ही पर्याय ___ अपने चित्त और उसके व्यवहार के चलते ही व्यक्ति कभी प्रेत हो जाता है और कभी देव । प्रेत और देव कोई अलग हस्तियाँ नहीं हैं । ये दोनों मनुष्य के ही पर्याय और चुनौतियाँ हैं । मनुष्य स्वयं ही कभी प्रेत बन जाता है और कभी देव । मैंने प्रेतों को भी देखा है और देवों को भी । मुझे मनुष्य ही प्रेत नज़र आया है और वही देव । तुम कभी किसी व्यक्ति को गुस्से में लड़ते-झगड़ते देखो, तो तुम्हें सृष्टि के नक्शे में प्रेतों का पाताल देखने की अपेक्षा ही नहीं रहेगी । तुम कह उठोगे क्या इंसान इतना क्रूर, अमर्यादित और उच्छृखल हो सकता है ! आखिर दुनिया की धार्मिक किताबों में जिन्हें भूत कहा जाता है, वे ऐसे क्रोधियों और हिंसकों से ज्यादा विकराल नहीं होते होंगे । वे भूत भी आखिर इन्हीं भूतों के परिणाम हैं । ये इंसानी भूत ही मरकर पाताली भूत बनकर धरती के देवों को सताने की कोशिश करते हैं। __मैंने देवों को भी देखा है। कभी-कभी ऐसे संत और सज्जन पुरुषों से मिलना होता है कि हृदय स्वतः ही उनकी नेकनियती, उनकी सादगी और उनके दिव्य भावनात्मक तथा व्यावहारिक स्वरूप पर समर्पित हो जाता है। दुनिया में अगर बुरे लोग हैं, तो भले लोगों की भी कमी नहीं है । अच्छाई से बढ़कर कोई ऊँचाई नहीं होती। ऊँचा उठने के लिए अच्छा होना जरूरी है। हम स्वयं अपने जीवन को निहारें, तो स्वतः ही यह आत्म-पहचान हो जाएगी कि मैं कैसा हूँ, मेरा स्वरूप क्या है; मेरे चित्त में प्रेत और पशुता के अंधड़ छिपे हैं या भलाई और देवत्व के फूल खिले हैं। हंसना-रोना जीवन में ऐसे ही चलता रहेगा, पर हम दुनिया में ऐसे जीएँ कि हम हँसें और हमारे लिए जग रोये। क्या हम इस बात को तवज्जो देंगे कि हम स्वयं अपने अन्तर्मन का आत्म-निरीक्षण कर सकें। कहीं ऐसा तो नहीं कि हम स्वयं ही सुबह शांत और शालीन थे, वहीं अभी निराश और उदास हो चुके हों । कभी हंसने और कभी रोने का खेल, क्या हमारे साथ भी चल रहा है ? कहीं हम मनुष्य के नाम पर ऐसे समुद्र तो नहीं हैं, जिसमें शांति-अशांति के क्लेश-संक्लेश के ज्वार-भाटे उठते रहते हों? अगर ऐसा है, तो हमें अपने चित्त और ७६ ऐसे जिएँ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003895
Book TitleAise Jiye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2001
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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