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आमुख हर दिल में जीने की ख्वाहिश है और हर आँख में सुनहरे कल का सपना । उस सपने को सच करने के लिए आदमी दिलो-जान से जुटा रहता है । जब ख्वाब हकीकत नहीं बनता, तो आदमी टूट-सा जाता है, कई-कई मानसिक उलझनें पाल लेता है । उसे जीने की कोई राह नजर नहीं आती। ऐसे में पूज्यश्री चंद्रप्रभजी की अमृत वाणी स्वस्थ-मधुर-प्रसन्न जीवन का संदेश लिये प्रकट होती है और कहती है-ऐसे जीएँ !
जीवन बहुत सरल है, मगर स्वयं आदमी ने ही आज उसे जटिल बना दिया है । हजारों दिक्कतों-दुश्वारियों के चलते आदमी के लिए जीवन भारभूत बन गया है। आदमी की सौम्य मुस्कान न जाने कहाँ खो गई है। इसी बोझिल बन चुके जीवन में नई ऊर्जा, नई प्रेरणा फूंकते हुए पूज्य प्रवर कहते हैं कि जीवन से बढ़कर कोई आनंद नहीं है
और न ही जीवन से बढ़कर कोई सौंदर्य । जिस व्यक्ति ने जीवन के मर्म को छुआ है, उसे जीया है, वह जानता है कि जीवन से बढ़कर कोई और वरदान नहीं हो सकता । इस ईश्वरीय सौगात को हम आनंदोत्सव बनाकर जीएँ; आनंद का महोत्सव बनाकर जीएँ।
मनुष्य का सफलता और विफलता के साथ सदा से नाता रहा है, लेकिन इस दौर में ये शब्द इतने उछले हैं कि हर सफलता और विफलता आदमी को पागल कर रही है । सफलता की खुशी को फिर भी काबू किया जा सकता है, मगर विफलता से उपजा पागलपन हदें पार कर जाता है और आदमी अचानक कोई आत्मघाती कदम उठा लेता है। दरअसल उस आदमी को अपने भीतर में दबी अकूत क्षमताओं का भान नहीं है। पूज्यश्री कहते हैं कि जीवन की हर असफलता सफलता की ओर बढ़ने की प्रेरणा है । जो असफलता से निराश हो जाते हैं, वे सफलता के शिखर की ओर नहीं बढ़ पाते । हम
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