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छोटे-से-छोटे कार्य को भी इतने उच्च मन से संपन्न करें कि हमारा हर कार्य शांति-आनंद
और मुक्ति की किरण बन जाए। मन में हैं रोगों के बीज __क्या हम यह राज की बात समझना चाहेंगे कि जीवन के जितने रोग हैं, उन सबके बीज हमारे अपने ही मन में समाए हए हैं। हम अपने मन के लक्षणों को समझकर शरीर के रोगों की चिकित्सा कर सकते हैं । अपने मन में पलने वाले भय पर विजय प्राप्त करके हम अपनी दस्त की शिकायत पर अंकुश लगा सकते हैं; क्रोध-आक्रोश को मिटाकर जीवन को चैतन्य-कणों से आपूरित कर सकते हैं । द्वेष-भाव और मोह का त्याग करके अनिद्रा रोग का निवारण कर सकते हैं । ये जो बाते हैं वे अत्यंत वैज्ञानिक/ मनोवैज्ञानिक
तुम ताज्जुब करोगे कि जब कभी तुम्हारा चित्त भयभीत हुआ, तुम्हारा जी मचलने लगा और तभी तुम्हें शौच की शंका हो गई । तुम पाते हो कि चित्त में विकार की तरंग उठते ही श्वासों की गति असंतुलित हो गई, रक्तचाप की गति बढ़ गई और तुम्हारा तन-मन अनियंत्रित हो गया। मन के रोग और विकार शरीर पर उतरकर आते हैं । स्वस्थ जीवन के लिए व्यक्ति के शरीर और मन—दोनों का स्वस्थ होना जरूरी है।
हाल ही में जर्मनी के एक महान् चिकित्सा-विज्ञानी डॉ. बैच ने अपने गहरे अनुसंधान के बाद फ्लावर रेमेडीज चिकित्सा पद्धति विकसित की । इस पद्धति से आम व्यक्ति के मानसिक और न्यूरो-फिजीकल रोगों का उपचार तो होता ही है, व्यक्ति की शारीरिक बीमारियों पर भी काफी कुछ नियंत्रण किया जा सकता है । इस पद्धति का सार-सूत्र इतना ही है कि व्यक्ति के मानसिक लक्षणों के आधार पर शारीरिक रोगों की चिकित्सा हो । यह चिकित्सा पद्धति हाल ही में बहुत कारगर सिद्ध हुई है। भारत में भी कई शहरों में इस पद्धति के केंद्र संचालित हैं । जोधपुर स्थित संबोधि-धाम में भी हाल ही इसका नया केन्द्र स्थापित हुआ है। चिंताओं की चिता जलाएँ
__ चाहे व्यक्ति औषधि का उपयोग करे या सम्यक् समझ का, मूल बात मनोदशा को सुधारने की है । हृदय की दशा बदल जाए, सुधर जाए तो जीवन की हर गतिविधि का स्वरूप ही परिवर्तित और संस्कारित हो जाता है । सीधी-सी बात है कि आईने को बदलने से चेहरे नहीं बदला करते हैं, चेहरा बदल जाए तो आईना अपने आप ही बदल ६६
ऐसे जिएँ
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