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प्रेम से बढ़कर प्रार्थना क्या!
प्रेम परमेश्वर की प्रार्थना है और सहानुभूति मानवता का सौन्दर्य !
हर मनुष्य की अपनी जिजीविषा है । न केवल मनुष्य की, वरन् धरती पर रहने वाले हर प्राणी की जीने की समान इच्छा है । सभी जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता । मरने की केवल वही सोचता है जो जीवन और जगत की आपाधापी से या तो ऊब चुका है या संत्रस्त हो चुका है । जीना प्राणिमात्र का अधिकार है, मृत्यु जीवन का आखिरी पड़ाव है, लेकिन इसके बावजूद मृत्यु की प्राप्ति किसी की भी अपेक्षा और अभीप्सा नहीं है। मनुष्य जीना चाहता है और उसे जीने का पूरा अधिकार मिलना चाहिए।
आखिर ऐसा कौन-सा मनुष्य है जिसे मृत्यु प्रिय हो? क्या आप चाहते हैं कि किसी के द्वारा आपको कष्ट पहुँचे? जब कोई अपने लिए रंच भर भी कष्ट नहीं चाहता, तो ऐसी स्थिति में भला कोई किसी के द्वारा मृत्यु की अपेक्षा कैसे रख पाएगा। जैसे हमारी अपेक्षा है कि हमें किसी के द्वारा किंचित् भी कष्ट न पहुँचे, ध्यान रखें औरों की भी हमसे वैसी ही अपेक्षा है । हमसे भी कोई दुःख-दौर्मनस्य नहीं चाहता । अपेक्षाओं की तो समान रूप से आपूर्ति होती है। यदि हम अपने लिए औरों से सौम्य और सौहार्दपूर्ण व्यवहार चाहते हैं, तो स्वयं हम भी वैसा ही बर्ताव करने के उत्तराधिकारी बन जाते हैं । आखिर ताली तो दोनों हाथों से ही बजेगी।
प्रेम से बढ़कर प्रार्थना क्या !
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