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आनुवंशिकता का । यह सबके पूर्व जन्म के अपने-अपने संस्कारों का परिणाम है । जिसके जैसे संस्कार होते हैं, वैसी ही उसकी प्रकृति और नियति बन जाती है ।
संस्कार-सुधार का पहला प्रयास स्वयं से
कौन व्यक्ति यह नहीं चाहता कि उसकी भावी पीढ़ी सही, सुशील और गरिमापूर्ण न हो । चाहता तो हर कोई है, पर केवल चाह लेने भर से क्या होगा ! हमें अपने और अपने घर वालों से शुरुआत करनी होगी । हमें अपने भाई, बहिन और बच्चों के संस्कारों को परिष्कृत करने के लिए प्रयत्नशील होना होगा । हमें संसार के संस्कारों को सुधारने के लिए अपने आपको संस्कारित करना होगा । स्वयं को सुधारने का दायित्व तो आखिर स्वयं पर ही जाता है ।
एक पिता वह होता है जो संतान को केवल जन्म देता है; दूसरा पिता वह होता है, जो अपनी संतति को संपत्ति देता है, जबकि तीसरा, पर सर्वोत्तम पिता वह होता है, जो अपनी संतान को सही संस्कार देता है। जन्म देने वाले पिता भुला दिये जाते हैं, संपत्ति देने वाले पिता लड़ाई-झगड़े की नींव रख जाते हैं, संस्कार देने वाले पिता गुरु का भी दायित्व निभा लेते हैं । संस्कारशील संतान हमारी श्रेष्ठतम निर्मिति है । वे हमें जीते-जी तो सुख पहुँचाते ही हैं, मरणोपरान्त भी न केवल हमें याद करते हैं, वरन् हमारी गौरव गाथा को अक्षुण्ण बनाये रखते हैं ।
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जीवन के सम्यक् संस्कार के लिए हम पड़तालें कि हममें कौन-सी बुरी आदतें घर चुकी हैं; हमारा उठना-बैठना कहीं उन लोगों के साथ तो नहीं है जो बदचलन हैं या जिनके इरादे नेक नहीं है ? हम सबसे पहले बुरी मित्र - मण्डली से बचें। सौ बुरे मित्रों की बजाय अकेला रहना जीवन के लिए ज्यादा श्रेष्ठ है। ठीक है जीवन में मित्र होना चाहिए, पर ऐसे मित्रों का बोझ क्यों ढोयें, जो हमारे संस्कारों और हमारी गरिमा के लिए आत्मघातक हों । नहाना अच्छी बात है, पर गंदे पानी से नहाने की बजाय न नहाना ही ज्यादा श्रेष्ठ है ।
फिर से दीप जलाएँ
संभव है हममें कोई बुराई घर कर चुकी हो। अगर ऐसा है तो इसके लिए हम आत्मग्लानि का अनुभव न करें। बुराई आ जाया करती है । आज बुराई है तो क्या हुआ, हम जीवन के प्रति नेक दृष्टि अपनाकर अच्छाई भी आत्मसात कर लेंगे । बुरा कोई जीवनभर बुरा थोड़े ही रह सकेगा । अच्छाई के प्रयास हों, तो बुराई को बदलने में कितना सुधरे संस्कार-धारा
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