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परिपक्वता का स्वरूप देखने को नहीं मिलता । हमने जो पढ़ाई भी की है, उसका भी न जाने क्या तरीका रहा कि आज यदि किसी डॉक्टरेट व्यक्ति से पूछा जाए कि तुमने अपनी आठवीं और दसवीं की पढ़ाई में कौन-कौन से पाठ पढ़े तो उसके लिए बताना मुश्किल हो जायेगा। शिक्षा का अर्थ यह कदापि नहीं है कि आगे पढ़ते जाओ और पिछला जो पढ़ा है, उसे भूलते जाओ । हर अगला वास्तव में पिछले का विकास होता है, पर उसे भूल जाना अपने आपके साथ छलावा है ।
शिक्षा के साथ स्वाध्याय का संबंध न जोड़ पाने के कारण ही आज का आम शिक्षित वर्ग अशिक्षित-सा बना हुआ है। भला यह कौन नहीं जानता कि शराब या सिगरेट पीना, जर्दा-तंबाकू खाना व्यक्ति के स्वास्थ्य के लिए छिपा हुआ जहर है, लेकिन इसके बावजूद इन सबका धड़ल्ले से प्रयोग हो रहा है। सरकार और शासन-प्रशासन भी विद्यार्थियों की पाठ्यपुस्तकों में तो इनके निषेध का उल्लेख करते हैं, वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं में इनके दुष्परिणामों का निष्कर्ष निकालते हैं, लेकिन सरकारों ने न जाने कौन-सी भांग पी रखी है? करे भी तो क्या, इनकी आमद से ही उनकी सरकारों का खर्चा निकलता है, उनकी सरकारों का अस्तित्व टिका है । माँ : पहली शिक्षिका
शिक्षा तो वह है जो हमें हमारी मिथ्या-दृष्टि से मुक्त करे । जिससे जीवन की अन्तर्दृष्टि मिले वही शिक्षा आदमी के लिए वास्तविक रूप से कल्याणकारी है। शिक्षा जब तक जीवन की दीक्षा के रूप में न ढले, तब तक वह अधूरी ही है । जहाँ शिक्षा का गुरुतर भार वहन करते हैं शिक्षक और प्रोफेसर, वहीं दीक्षा का संस्कार होता है उसके अपने घर वालों के द्वारा । घर के संस्कार शिक्षा को दीक्षा के रूप में ढालते हैं । यह कार्य सही रूप से संपादित कर सकती है हमारी अपनी माँ । पिता तो रोजी-रोटी कमाने की व्यवस्था में व्यस्त हो जाते हैं, लेकिन माँ हर बच्चे को दीक्षित कर सकती है । वह सही अर्थों में जीवन की पहली शिक्षिका है।
अपना बच्चा कैसा बने, इसके लिए सबसे ज्यादा सजग माँ ही होती है। हर माँ अपने बच्चे को ऊँचा उठा हुआ देखना चाहती है । इसके लिए वह बच्चे से भी श्रम कराती है। शिक्षा, शिक्षक और विद्यालय का भी उपयोग करती है। निश्चय ही जन्म देने वाले की महिमा इसी में है कि वह अपने जने हुए को संस्कारित और विकसित रूप प्रदान करे।
जीवन-विकास के नायाब पहलू-शिक्षा और स्वाध्याय
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