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________________ नहीं कि वह अपने बच्चों को प्यार दे सके; माता-पिता और भाई-बहिनों के सुख-दुःख में सहभागी हो सके । उसे दिन में कोर्ट और फैक्ट्री के दस लफड़े निपटाने हैं । भरपेट भोजन नहीं कर सकता, क्योंकि चर्बी की तकलीफ है; भोजन भी बिना तेल-घी-मिर्चमसाले का है, क्योंकि ब्लड प्रेशर और टेन्शन की तकलीफ है; हार्ट की तकलीफ भी अधिकतर इन्हीं लोगों को होती है। तो क्या हम इस सारे स्वरूप को ही सुखी जीवन कहते हैं? सुखी वह नहीं है जिसके पास मोटर-बंगला है, वरन् वह है जो चैन की नींद सोता है और स्वस्थ मानसिकता का मालिक है। समझें, जीवन का मूल्य प्रकृति की दृष्टि में तो हर व्यक्ति अधिसंपन्न है । अपने आपको दीन-हीन समझना स्वयं की अज्ञानता है । क्या हम जीवन का मूल्य समझते हैं? माना कि सोने और हीरे-जवाहरात का मूल्य है, पर क्या जीवन से ज्यादा है ? वास्तव में जीवन है, तो तुच्छ-से-तुच्छ वस्तु भी बहुमूल्यवान है । जीवन नहीं है, तो मूल्यवान वस्तु भी अर्थहीन है । एक अकेले जीवन के समक्ष पृथ्वी भर की समस्त सम्पदाएँ तुच्छ और नगण्य हैं । कृपया अपने आप पर ध्यान दें । इस बात को जानकर आप चमत्कृत हो उठेंगे कि हर व्यक्ति अपने आप में अकूत संपत्ति का खजाना है । ज़रा मुझे बताएं कि दुनिया में गुर्दे का, रक्त का, हृदय और आँखों का कितना मूल्य है ? एक आदमी के गुर्दो, हृदय और आँखों तक का मूल्य मिला लिया जाए, तो हाल ही के दामों से ऐसा कौन-सा व्यक्ति नहीं है, जो करोड़पति न होगा । हम अपनी दीन-हीन भावना का त्याग करें, हमारा एक शरीर अपने आप में करोड़ों का है । एक करोड़पति सैंकड़ों-हजारों के लिए रोये ! हम हृदय से प्रफुल्लित हों और प्राप्त जीवन के लिए ईश्वर के प्रति कृतज्ञता से भर उठे। ___ व्यक्ति का जीवन दुःखी इसलिए है, क्योंकि वह रुग्ण और विक्षिप्त-चित्त है। स्वर्ग और नरक कोई आसमान और पाताल के नक्शे नहीं हैं, वरन् ये दोनों जीवन के ही पर्याय हैं । शांत चित्त स्वर्ग है, अशांत चित्त नरक; प्रसन्न हृदय स्वर्ग है, उदास मन नरकं । हर प्राप्त में आनंदित होना स्वर्ग है, व्यर्थ की मकड़ लालसाओं में उलझे रहना नरक । यह व्यक्ति पर निर्भर है कि वह अपने आपको नरक की आग में झुलसाए रखना चाहता है या स्वर्ग के मधुवन में आनंद-भाव से अहोनृत्य करना चाहता है । हम अपने शारीरिक और मानसिक रोगों से, आशंका, उद्वेग और उत्तेजनाओं से स्वयं को उपरत करें और जीवन को सत्यम्-शिवम्-सुन्दरम् के मंगलमय पथ की ओर अग्रसर करें मधुर जीवन के मूल मंत्र Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003895
Book TitleAise Jiye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2001
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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