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________________ क्या आप यह समझते हैं कि आप शाश्वत रूप से हिन्दू रहते आए हैं या शाश्वत रूप से जैन अथवा बौद्ध रहते आए हैं ? नहीं, यह नहीं हो सकता। चेतना तो जन्मजन्मांतर से देह से सम्बन्ध जोड़ती-तोड़ती रहती है और उसे जैसी अनुकूलता मिले, उसी के अनुरूप निर्माण कर लेती है। मूलतः हमारी यही त्रुटि रही कि हमने आत्मबोध नहीं पाया। हम लोगों ने आत्म-तत्त्व की प्ररूपणा नहीं की और न अन्तर-संवेदनाओं को पहचाना। हम अपने चित्त में चलने वाली वृत्तियों को, विकारों को न पहचान पाए। परिणामतः ऐसा कोई धर्म, देश, भाषा नहीं होगी, जिसमें हमने जन्म न लिया हो। तुम्हारा जो बाह्य अस्तित्व, बाह्य व्यक्तित्व है, वही बार-बार आरोपित होता रहा और तुम अपनी वृत्तियों का विशोधन नहीं कर पाए। तुमने संन्यास भी लिया, संसार भी छोड़ा लेकिन आत्मबोधि को उपलब्ध नहीं हो पाए। श्रीमद् राजचन्द्र कहते हैं बहु पुण्य केरा पुंज थी, शुभ देह मानव ना मल्यो। तो भी अरे भवचक्र नो, आंटो नहीं एके टल्यो।। जन्मों-जन्मों तक पण्य करने के बाद तुम्हें मानव-देह मिली। इसके बावजूद आत्मबोधि के अभाव में, आत्मशुद्धि के अभाव में तुम बंधनों से मुक्त नहीं हो पाते। यही नहीं, और नए-नए बंधन तुम अपनी जिंदगी में बांध लेते हो। दुनिया के सभी शास्त्रों का, सभी पंथ-सम्प्रदायों का एक ही सार है कि तुम आत्मशुद्धि को उपलब्ध होओ। अपनी बुराइयों को चुन-चुनकर बाहर निकाल फेंको। अपने भीतर के पात्र को बल्कुिल निर्मल और पवित्र कर लो। तुम्हारा दर्पण रजरहित हो जाए। अगर तुम चेतना का रूपान्तरण नहीं कर पाए, तो अतीत के संवेग आत्मा के साथ चलते रहेंगे। नतीजतन जन्मों-जन्मों तक धर्म-अध्यात्म, सद्गुरु की सन्निधि और पवित्र मार्ग मिलने के बावजूद तुम भीतर की पवित्रता को आत्मसात नहीं कर पाओगे। ये जो संबोधि-सूत्र के पद हैं, इनका मूल भाव यही है कि तुम आत्मबोधि को, आत्मशुद्धि और आत्म-मुक्ति को उपलब्ध कर लो। कहीं ऐसा तो नहीं है कि तुम बाहर से तो साधुता का प्रदर्शन कर रहे हो और तुम्हारे भीतर वृत्तियों में, विचारों में, तुम्हारे भीतर रहने वाली ग्रंथियों में कहीं-न-कहीं सूक्ष्म रूप में संसार की तमन्नाएँ छिपी रह गईं। एक बात ध्यान रखना कि जैसे ही पहली बार तुम भीतर प्रवेश करोगे, अंधेरा नजर आएगा। दूसरे चरण में अंधकार कुछ कम होगा। तीसरे-चौथे चरण में उतरोत्तर कम साक्षी-भाव : ध्यान का आधार : : 85 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003894
Book TitleMahaguha ki Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1999
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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