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जरूरी है कि मैं कौन हूँ, कहाँ से आया हूँ और मेरा क्या स्वरूप है, क्या मुझे पाना है। जब ध्यान की प्रथम सीढ़ी पर चढ़ते हैं तो अस्तित्व से पूछते हैं 'कोऽहं-मैं कौन हूँ। बार-बार गहराई में उतरकर प्रश्न उठाना होता है 'कोऽहं-तब चेतना की गहराई से उत्तर आता है 'सोऽहं-मैं वह हूँ| अभी तुम जब ध्यान में उतरकर यह प्रश्न पूछते हो तो उत्तर भी साथ ले आते हो। अभी तुम्हारे उत्तर रटे-रटाए हैं। तुमने सुन लिए हैं, उन्हीं को दोहरा देते हो। प्रवचनों में सुने थे, सो प्रतिध्वनित हो रहे हैं। कहीं पढ़ लिए थे, वो याद आ रहे हैं। अभी तुम्हारे सब उत्तर आरोपित हैं। जब उत्तर आएगा, तुम मौन हो जाओगे और उस मौन में जो मुखरित होगा वह शाश्वत होगा, सत्य होगा, वही सोऽहं नाद होगा। तुम्हें कहना नहीं पड़ेगा कि 'मैं वह हूँ-तब तुम 'वह' ही होओगे। इसके आगे भी तुम्हें निरंतर साधना की गहराई में उतरते जाना है। अभी तो तुमने सिर्फ स्वयं को जाना है। अभी और भी कुछ जानना है जिसके बाद जानने को कुछ शेष न रह जाय । अभी तो केवल अपने अस्तित्व को पहचाना है, अभी तो उसे जानना है जिससे अस्तित्व की पूर्णता है, दिव्यता है। इसलिए ध्यान को और गहराई दो, ऐसी गहराई जिसे बुद्ध ने परिनिर्वाण की संज्ञा दी, जिसे महावीर ने मुक्ति कहा, जिसे कृष्ण ने गोलोक बताया-उस स्तर पर पहुँचकर तुम्हें पता चलेगा कि कल तक जो कोऽहं था, सुबह तक सोऽहं था, अब 'शिवोऽहं हो गया है।
'अहं ब्रह्मास्मि'-मैं ब्रह्म तत्त्व हूँ, मैं शिव तत्त्व हूँ, मैं चेतन तत्त्व हूँ, यह अंतिम स्थिति है। प्रथम सोपान में तो आत्मशक्ति का ज्ञान होता है और उसके आलाद से अन्दर-बाहर आनन्द ही आनन्द बरसता है और मौन को उपलब्ध हो जाता है। इस मौन में ही उसके वे शब्द मुखरित हो जाते हैं, जो संबोधि-सूत्र में हैं। वे मौन साधक धन्य हैं जिनकी भाषा नहीं होती, केवल भाव होते हैं। वे धन्य हैं जो मुख से नहीं बोलते, लेकिन उनका सत्संग ही उनकी वाणी बन जाता है। उनका मौन किसी की भी चेतना के रूपान्तरण में सहायक हो जाता है। क्षणमपि सज्जन संगति रे का, भवति भवार्णवतरण नौका' या तुलसीदास ने जो कहा है
एक घड़ी, आधी घड़ी, आधी में पुनि आध ।
तुलसी' संगत साधु की, कटे कोटि अपराध ।। यह सब उनके लिए नहीं है जो मंच पर बैठकर प्रवचन करते हैं या वे जो जीवन की बातें बतियाते रहते हैं। यह तो उनके लिए हैं जिनके पास बैठने मात्र से तुम्हारे भीतर उठने वाले विकार क्षण भर में नष्ट हो जाते हैं, वह पुरुष
78 : : महागुहा की चेतना
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