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कहते हैं-'बड़े भाग मानुस तन पावा, सुर दुर्लभ ग्रंथ कोटिन्ह गावा।' वह क्या है मनुष्य के पास कि जो देवों को उपलब्ध नहीं हैं और सैंकड़ों ग्रंथ भी जिसकी महिमा का गान नहीं कर सके। हमारे पास जरूर कुछ विशिष्ट है और वह है, भगवत्ता को उपार्जित करने की क्षमता। यह क्षमता अन्य किसी के पास नहीं है। इसलिए तुम्हारी महत्ता सर्वाधिक है। तुम्हें इस भगवत्ता को पाना है। अपनी मूर्छा से बाहर निकलो। तुम्हारे साथ संसार की वैभव-विलासिता नहीं जाएगी। अपने अन्तर-बंधनों को पहचानो। उनसे मुक्त होने का प्रयास करो, ताकि अपनी मौलिकता से पहचान हो। आज के संबोधि-सत्र इसी बात की ओर इशारा कर रहे हैं कि तुम्हारी बाह्य संपदा से अधिक भीतर संपदा छिपी हुई है। तुम्हारी भौतिक शक्ति से अधिक शक्ति चेतना में छिपी है। काश तुम भीतर उतरो तब अन्तस् की गहराई में जाकर तुम पाओगे कि सम्पूर्ण अस्तित्व तुम्हारे स्वागत में तत्पर है। आज के संबोधि-सूत्रों में उतरें
चित-शक्ति की चेतना, अन्तस् का आह्लाद । मुखरित होता मौन में, शाश्वत सोहनाद । नया जन्म दें स्वयं को, सांस-सांस विश्वास । छाया दे संसार को, पर निस्पृह आकाश। मुक्ति मानव-मात्र का, जीवन का अधिकार ।
मन की जो खटपट मिटे, तो हो मुक्त विहार। चेतना का स्पर्श करने वाले गहन गंभीर पद हैं ये। कोहिनूर-सी चमक है इन पदों में। तुम्हारे अन्तस के द्वारोद्घाटन करने के लिए ये स्वर्णिम सूत्र हैं। 'चित्त-शक्ति की चेतना, अन्तस् का आह्लाद'-व्यक्ति सर्वप्रथम अपनी चेतना की शक्ति को पहचाने, अपने चित् अर्थात् आत्मा। तुमने अभी तक आत्मा को जाना ही नहीं है, इसलिए तुम 'चित्' को मन समझने की भूल करते हो। मन में कोई मौलिक शक्ति नहीं है वहाँ तो प्रतिबिम्ब है आत्मा की शक्ति का। जो ऊर्जा तुम्हें लगता है कि मन से मिल रही है वह आत्मा के द्वारा ही आती है। तुम्हारी दृढ़ता, आत्म-विश्वास सब आत्मा से आते हैं। मन में केवल विचार आते हैं। मन में से विचार निकाल दो तो फिर वहाँ क्या बचता है ? मन खाली हो जाता है। इस खाली मन को आत्मा की शक्ति का विश्राम-स्थल बनाओ। अपनी आत्मा की संचित शक्ति से इस मन को ऊर्जावान बनाओ। जब तुम अपनी आत्मा की मौलिक क्षमता और संपदा को पहचान लेते हो तो पाते हो कि अन्तस् में कितना आह्लाद, मौज और आनन्द है। जो भी आत्मवान होते हैं, उनके
76 : : महागुहा की चेतना
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