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प्रस्तुत ग्रंथ जीवन-उत्कर्ष और अध्यात्म की एक नव्य और भव्य रचना 'संबोधि-सूत्र' पर दिए गए वक्तव्य और प्रवचन हैं । ये प्रवचन जिज्ञासुओं एवं ध्यान-साधकों की भावना के वशीभूत होकर मेरी ओर से जोधपुर स्थित गीताभवन में दिए गए हैं । निश्चय ही इस अनूठे और रस भरे ‘संबोधि-सूत्र' पर मुझे सुनकर लोग आनंदित और संप्रेरित हुए, किंतु इससे भी बढ़कर यथार्थ यह है कि इसके हर सूत्र ने मुझे पुलक और अन्तस् का स्पर्श प्रदान किया ।
संबोधि-सूत्र रचना किसकी है, यह हम सभी जानते हैं । यह रचना लिखी नहीं गई, वरन् अन्तर के आनन्द में स्वतः अवतरित हुई है । चेतना के आकाश में घटित महाशून्य ही इसका निर्माता है | श्री चन्द्रप्रभजी कहते हैं "इस रचना के लिए मुझे उल्लेखित न किया जाए | मेरा नाम और आकार गौण है, निराकार का नूर ही मुख्य है | संबोधि-सूत्र तो महावीर का मौन है और मीरा का नृत्य।"
संबोधि-सूत्र के छत्तीस पदों पर जितना बोला जाए, जब भी बोला जाए, गुनगुनाया जाए, साधक की अंतरात्मा को सुकून ही मिलना है | शांत, सौम्य, आनन्द-भाव से संबोधि-सूत्र को गुनगुनाना अपने आप में जीवन की गहराई की जुगाली करना है ।
___ परम आत्मीय, सौम्य सरल हृदया और साधना की समर्पण-मूर्ति श्रीमती लता भंडारी ने प्रस्तुत ग्रंथ के संपादन में अपनी जो अनुपम सेवाएं दी हैं, उसके लिए उन्हें मैं क्या साधुवाद दूं ! उनका श्रम और समर्पण स्वयं ही साधुता का पर्याय है ।
ग्रंथ घर- घर पढ़ा जाए, सभी इससे प्रेरित होकर अध्यात्म की ओर उन्मुख हों, निर्मल चित्त के स्वामी होकर जीवन-जगत को जिएं, यही अभ्यर्थना है।
ललितप्रभ.
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