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अभ्यर्थना
'महागुहा की चेतना' साधक के लिए साधना का प्रवेश-द्वार है । ध्यान इसकी विधि है और समाधि उसकी मंजिल । यह सारी प्रक्रिया मूर्छा से उपरत होते हुए प्रज्ञा की ओर उठने वाला कदम है | संसार में रहते हुए भी संसार से अलिप्त होने का विज्ञान ही ध्यान है ।
मनुष्य का चित्त उच्छृखल वृत्तियों का लावा है और मन चंचलताओं का स्वामी । अन्तरजगत में उतरने के लिए पहला बाधक मनुष्य का मन ही है , किन्तु द्रष्टा-भाव और साक्षी-भाव का सर्वोदय हो जाए तो साधक का मन स्वयं सहायक बन जाता है । पहले चरण में हम मन को देखें, मन से अलग होकर उसकी चंचलता और उसके यातायात को पहचानें । यदि हम मन के बहाव में बह गए, तो ध्यान के राजपथ पर हमारा पहला कदम ही गलत पड़ गया । मनोविचारों को स्वयं से पृथक देखने में हम अगर सफल हो गए, तो समझो ध्यान का गुर हाथ लग गया ।
मन में जो कुछ भी उठे, हम उसे देखें भर | वह बुरा है या भला, इसका मूल्यांकन न करें ; तभी तटस्थता संभावित है । हम मन को रोकें नहीं, वरन् मन से स्वयं को अलग देखें । कर्ता-भाव विलीन हो जाए और द्रष्टाभाव साकार हो उठे । मन के किसी भी भाव पर न तो ग्लानि करें, न गर्व । जो भी है उसे प्राकृतिक मानें और इस तरह मन को शांत और तिरोहित हो जाने दें । उस शांति की धारा में, भीतर के चित्ताकाश/अंतस् के आकाश में जो सौम्य अनुभूति उतरती है उसी का नाम है – ‘संबोधि-सूत्र' ।
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