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________________ तुम्हारा संसार तुमसे दूर है, तुम्हारा परिवार, पति, पत्नी, बच्चे ये सब भी तुमसे काफी दूर हैं। और तो और तुम्हारे देह की भी तुमसे दूरियाँ हैं, पर 'वह' तुमसे उतना भी दूर नहीं है जितनी देह है। देह तो फिर भी परतत्त्व है, पर वह महाचेतना तो स्वतंत्र है, पर तो पर ही है और स्व स्व ही है। हमारे यहाँ सबसे बड़ी दिक्कत है कि हमें धर्म की व्यवस्थाओं के नाम पर स्वर्ग-नरक के नक्शे दे दिये गये या ईश्वर को पाने के नाम पर अरबोंखरबों खर्च भी हो गए, पर न तो नक्शे मुक्ति दे पाते हैं और न ही धन का व्यय ईश्वर को उपलब्ध करा सकता है। सच्चाई तो यह है कि लोगों ने ईश्वर प्राप्ति को कठिन बताकर धन कमाया है। जो सरल से सरलतम है भला उसे कठिन-से-कठिनतम क्यों घोषित किया जाए। ईश्वर को कठिन बनाने का परिणाम यह निकलकर आया कि जो विनम्र लोग थे उन्होंने ईश्वर प्राप्ति को दुर्लभतम मानकर उस ओर कोई विशेष प्रयास नहीं किया और अहंकारी कभी प्रभुता को पा ही नहीं सकता। 'लघुता में प्रभुता बसै, प्रभुता से प्रभु दूर' अहंकार दूरी है प्रभु से। अगर हम चाहते हैं कि भीतर के भगवान को हम उपलब्ध करें तो उसके लिए पहली आवश्यकता है, इस सत्य को स्वीकार करें-ईश्वर सहज है, सरल है। उसका अस्तित्व मेरे भीतर है और मैं उसे अहोभाव से स्वीकार कर रहा हूँ। भला मछली जो सागर में ही जी रही है, वह अगर जीवन भर तक सागर की तलाश करती रहे तो वह कैसे पा सकेगी सागर को। सागर की मछली को सागर की तलाश नहीं करनी है, अपितु उसका बोध प्राप्त करना है। मछली का यह खोजना ही हास्यास्पद है-'सागर कहाँ है', तुम हो, और बिना सागर के तुम हो नहीं सकती। जैसे सूर्य की किरणें सूर्य की तलाश करे, खोज करे कि सूर्य कहाँ है, तो हास्यास्पद लगता है। किरणें जिसके बलबूते पर है, जिससे उद्भूत है, वही तो सूर्य है। भला सूर्य और किरणें अलग-अलग कैसे हो सकती हैं। 'भीतर बैठे ब्रह्म को प्रमुदित हो पहचान-पहचान करो अन्तब्रह्म की, जगत के मिथ्या भाव से मुक्त होकर, शरीर की रागात्मक वृत्तियों से ऊपर उठकर, शुचितापूर्ण भाव से अपने अन्तर्हृदय के कमल को खिलाओ और ध्यान की बैठक में परमब्रह्म को हृदय-कमल में विराजमान करने की कोशिश करो। आज के इन पदों का यही सार है। 60 : : महागुहा की चेतना Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003894
Book TitleMahaguha ki Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1999
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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