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में यह मनुष्य को उलझाए तो सुलझाना बड़े-बड़े मनुष्यों के बस की बात नहीं। बड़े-बड़े संतों और ऋषियों को उलझाया है इसने। किसी साधक को डिगाने के लिए कभी स्वर्ग से उर्वशियाँ थोड़े ही आती हैं। तुम्हारे भीतर की दबी उर्वशियाँ जब जगती हैं, तो वे ही तुम्हारे सामने प्रत्यक्ष होती हैं। एक छोटा-सा निमित्त चाहिए मन को डिगने के लिए। जैसे सौ मन दूध को एक काचर का बीज नष्ट कर सकता है, वैसे ही सौ साल की साधना को एक क्षण का विचलित मन भंग करने में समर्थ होता है। ___ मुझे याद है : एक साधक वन में तपस्या कर रहा था। चालीस वर्ष बीत गये, उसे गहन तपस्या करते हुए। इंद्र का आसन कंपित हुआ। सोचा, ओह! यही साधक अब इंद्र बनने वाला है, यानी मेरी शक्ति समाप्त। उसने किसी देवकन्या से कहा, 'जाओ और इस ऋषि के लिए ऐसा कुछ करो ताकि मेरा आसन सुरक्षित रह सके। इसकी साधना में विघ्न डालो।
देवकन्या घबराई। उसने सोचा कि यह साधक संत मुझसे पता नहीं कब रुष्ट हो जाए और मुझे अभिशाप दे बैठे, पर इधर इंद्र का आदेश मानना भी जरूरी था। आई वह पृथ्वी पर, उसी जंगल में पहुँची, एक सौन्दर्य-भरी षोडशी कन्या का रूप धारण किया। गई संन्यासी मुनि के पास और उनकी सेवासुश्रुषा में जुट गई। रोज इधर-उधर से फल-फूल इकट्ठे कर मुनि की सेवा में उपस्थित करती। अपने हाथों उन्हें जलपान कराती। और फिर धीरे-धीरे सेवाओं में बढ़ोतरी होती गई।
एक दिन मुनि ने सोचा कहीं मेरा मन न डिग जाए, सो एक दिन खड़े हुए और उस कन्या से कहा कि मैं तो अब हिमालय की तरफ जा रहा हूँ। कन्या मुनि के पाँवों में गिर पड़ी, सुबक-सुबक कर रोने लगी। ऋषिवर आप चले आएंगे, तो मेरा क्या होगा। नारी के पास आँसुओं की वह शक्ति होती है जिससे वह बड़े से बड़े साधक को भी अपनी बात मनवाने के लिए मजबूर कर देती है। मुनि का मन भी थोड़ा पिघल गया, बढ़ते पाँव थम गए। अब तो धीरे-धीरे स्नेह का बीज भी अंकुरित होने लगा। अगर दो-पाँच मिनट भी कन्या इधर-उधर हो जाए तो मुनि का मन भी न लगे। कन्या ने देखा कि मुनि का मन उससे आबद्ध हो गया है। विचलित हो गया है। एक दिन अचानक वह वहाँ से लुप्त हो गई। कुछ ही दिन बाद भगवान प्रकट हुए और मुनि से पूछा, 'बोलो क्त्स! साधना का क्या प्रतिफल चाहते हो?' संन्यासी ने कहा, 'बस यही षोडषी कन्या' । परिणाम ? साधना गिर गई और वासना जीत गई।
50 : : महागुहा की चेतना
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