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आज के संबोधि-सूत्र के पद हमारे लिए नई प्रेरणा दे रहे हैं, नए विचार दे रहे हैं। 'मन मंदिर इंसान का, मरघट मन श्मशान'-मनुष्य का मन ही उसका मंदिर बन जाता है, पावनता की लहरें जब स्वयं में उठने लगती हैं और भगवान के प्रति अतिशय भक्तिपूर्ण प्रार्थनाएँ जब उमड़-घुमड़ कर आती हैं, तब वही मनुष्य का मन मंदिर का रूप लेता है। ईंट, चूने और पत्थर के मंदिर शायद उतने चैतन्य नहीं हो पाते जितना चैतन्य मनुष्य का मन-मंदिर बन जाता है। अगर मन सुधर जाए तो 'मन ही देवता, मन ही ईश्वर, मन से बड़ा न कोय' । मन की ऐसी स्थिति घटित की जा सकती है।
'स्वर्ग नरक भीतर बसे'-मैंने अभी जिक्र किया था। मनुष्य का मन ही स्वर्ग है और मनुष्य का मन ही नरक है। नरक की तरह जीवन जीने वाला व्यक्ति मरते समय चाहे जितनी स्वर्ग की कामना कर ले या उसके बेटे-पोते कहीं पत्थर पर उसके नाम से स्वर्गीय लिखवा ले, लेकिन इतने मात्र से मनुष्य का जीवन स्वर्ग थोड़े ही बनता है। जो आज नरक की तरह जी रहा है। उसका कल भी नरक है। जो आज स्वर्ग की तरह जी रहा है। उसका कल भी स्वर्ग है। अब यह तुम्हारे हाथ में है कि तुम अपने जीवन में स्वर्ग ईजाद करते हो या नरक। 'मन निर्बल-बलवान'-मन थक गया तो शरीर थक गया। मन की बलिष्ठता शरीर की बलिष्ठता है। सत्तर साल की साधना अपने आप डिग गई। 'मन चंगा तो कठौती में गंगा'-मन अगर मजबूत है, परिपक्व है, तो स्थूलिभद्र की तरह अगर चार महीने भी कोशा वेश्या के यहाँ रह जाओगे, तो भी निर्लिप्त चले आओगे। लिप्तता शरीर से नहीं जगती, वरन् मनुष्य के मन से जगती है। वासना मनुष्य के मन से जगती है। शरीर पर तो उसका प्रभाव दिखाई देता है। अगर मन सध गया तो किसी महिला के साथ किसी एकांत कक्ष में रहकर भी निर्लिप्त निकल जाओगे और मन न सधा तो लाख दूरियाँ रख लेने के बावजूद भीतर में धधकती हुई वासना की चिंगारी भी बुझा न पाओगे। मन ही मनुष्य के बंधन का कारण है और मन ही मुक्ति का। मन ही उलझाता है और मन ही सुलझाता है। मन ही तुम्हें निर्बलता देता है और मन ही बलवान बनाता है।
___ 'मन की दविधा गर मिटे, मिटे जगत जंजाल' | तुम यह जितनी माया देख रहे हो। यह कोई किसी के और द्वारा निर्मित नहीं, वरन् यह तो मन के द्वारा निर्मित है। मन जब सुकृत होता है तो 'ब्रह्म सत्यं जगत् मिथ्या' के भाव प्रकट होते हैं। और मन जब विकृत होता है तो 'जगत् सत्यं ब्रह्म मिथ्या के भाव साकार होते हैं। मन की अपनी दुविधाएँ भी हैं। अगर स्वयं के चक्कर
काया मुरली बाँस की : : 49
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