SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 40
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कितने आश्चर्य की बात है कि जो तत्त्व तुम्हारे भीतर ही छिपा हुआ है, उसे तुम बाहर तलाशते रहते हो। किसी सद्गुरु के सम्पर्क में आने पर ही वह बता सकता है 'तेरा सांई तुज्झ में बस सुरति की आवश्यकता है। सागर में बहने वाली मछली अगर लहरों से कहे कि मुझे सागर से मिलना है, यह सागर क्या चीज है। अब तुम ही बताओ उसे सागर के बारे में कैसे समझाया जाए। वह सागर में ही है, लेकिन तलाश रही सागर को। यह सुरति कैसे दी जाए कि तुम्हारे भीतर ही परमात्मा है। तुम कस्तूरी मृग की भांति भटक रहे हो, लेकिन 'कस्तूरी कुण्डल बसै' वह तो भीतर ही है। कोई सद्गुरु ही तुम्हें उसकी सुगंध से परिचित करा सकता है। जिसका सुरति में बसेरा हो गया है वह पल-पल जागरूक और चैतन्य बना रहता है। कभी-कभी जब तुम साधना के, धर्म के मार्ग पर प्रवृत्त होते हो, तो और अधिक परेशानियों में फंस जाते हो। मुझसे एक महानुभाव कह रहे थे कि उनके पिताजी जब से साधना-पथ पर अग्रसर हुए हैं अधिक बीमार, अधिक दुखी, अधिक अप्रसन्न रहने लगे हैं। मैंने कहा यह तो मैं भी देख रहा हूँ पर क्या तुम जानते हो ऐसा क्यों हो रहा है ? भगवान महावीर तीस वर्षों तक राजमहल में रहे उनके पाँव में कांटा भी नहीं चुभा, लेकिन मुनित्व ग्रहण करने के बाद उन पर क्या-क्या संकट नहीं आये। भगवान बुद्ध जब तक राजमहल में रहे, दुःख की छाया भी उन पर नहीं पड़ी, लेकिन संन्यासी होने की पहली घड़ी में उन्होंने विपदाओं से ही साक्षात्कार किया। रामकृष्ण परमहंस कैंसर से पीड़ित हो गये। यह सब क्यों हुआ क्योंकि मनुष्य के कर्म परमाणु सुषुप्त रहते हैं और साधक ध्यान-साधना के द्वारा इन कर्म-परमाणुओं को समाप्त करने की कोशिश करता है तब वे जाग्रत होकर ऊपर आते हैं। हमारी चेतना के चारों ओर रहने वाले कर्म-परमाणु हमारी साधना से आंदोलित होकर हमारे ऊपर हावी होने की चेष्टा करते हैं ताकि मनुष्य साधना से विमुख हो जाए। तब हमें अपनी सुरति बनाये रखना है। अपनी चेतना, जो ज्योति-पुंज है, की स्मृति रखना है। __हम बाहर इस ज्योति को, इसके प्रकाश को तलाशते रहते हैं और भीतर का प्रकाश हमारे हाथ से छिटक जाता है। कभी-कभी लोग पूछते हैं कि जब यह ज्योति-पुंज है तो दिखाई क्यों नहीं देता। मेरे प्रभु, तुम साधना की गहराई में उतरो यह अवश्य दिखाई देगा। हाँ, अगर दिखाई नहीं दे रहा है तो इसलिए कि अभी तुमने उस प्रकाश को जाना ही नहीं है। अभी तुमने बाहर सूर्य देखा है अन्तस् का महासूर्य देखना शेष है। उतरो, गहरे उतरो, तुम उसका तेज जरूर महसूस करोगे। काया मुरली बाँस की : : 31 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003894
Book TitleMahaguha ki Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1999
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy