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विक्षिप्त हैं। सधे हुए व्यक्तित्व की पहचान है कि जब वह जो कार्य कर रहा है उसके विचार उसी से जुड़े रहें । अगर तुम दुकान में बैठे हो तो मंदिर की स्मृति नहीं आनी चाहिए और मंदिर में हो तो वहाँ दुकानदारी मत चलाओ । जहाँ हो बस वहीं पूर्ण रूप से रहो ।
'सातों दिन भगवान के शुभ कार्यों के लिए मुहूर्त मत तलाशो । मंगलवार और बुधवार में, शनिवार और रविवार में भेद मत करो। सारे दिन भगवान के हैं। जब जो कार्य करने का भाव उठ जाये, उस कार्य को करने का वही शुभ मुहूर्त है। शुभ आज, अशुभ कल, यही इस सूत्र का सार है ।
अन्तिम पंक्तियाँ
साधु नहीं पर साधुता, पा सकता इन्सान, पंक बीच पंकज खिले, हो अपनी पहचान ।
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इन पंक्तियों से ऐसा लगता है कि जैसे साधक ने मंथन करके अमृत हमारे हाथ में थमा दिया हो । हर व्यक्ति साधु नहीं बन सकता, पर साधुता तो पा सकता है । वेश नहीं बदल सकता पर जीवन तो बदल सकता है । कपड़े नहीं बदल सकता, पर मन और विचारों को तो बदल सकता हैं । जिस स्थिति में हो वहाँ कुछ भी छोड़ने की जरूरत नहीं है । बस, अपनी अन्तर्धारा बदल लो, सब कुछ बदल जाएगा । दृष्टि बदली कि सृष्टि बदल ही गई। बाहर जाती हुई चेतना को भीतर लौटा लो, साधुता आ ही जाएगी। इतना भी कर पाए तो ध्यान की सीढ़ी पर पहला कदम बढ़ जाएगा। तुम साधु न बन पाए तो साधुता तो उपार्जित कर ही ली। 'पंक बीच पंकज खिले, हो अपनी पहचान ।' पंक में दो चीजें उत्पन्न होती हैं- एक कमल, दूसरा कीड़ा । संसारी और ध्यान में जीने वाले के बीच यही फर्क है । जो संसार में है वह कीड़े की तरह संसार (कीचड़ ) में धंसता चला जाता है और जो इससे उपरत हो जाता है, विकसित होता जाता है, ऊपर उठता जाता है वह कमल की तरह खिल जाता है। कीचड़ से बाहर आ जाता है। ध्यान में उतरा हुआ व्यक्ति कमल जैसा है जो संसार में रहकर भी संसार से बाहर है। और जो संसार से बाहर हो गया वही स्वयं को पहचान सकता है । अपनी चेतना के दिव्य स्वरूप को जान सकता है । अपनी पहचान हो जाएगी, आत्मा से संवाद होगा ।
आप प्रतिदिन शुभ कार्य करने का संकल्प लें और साधुता को उपलब्ध हो सकें, इसी शुभकामना के साथ ।
ओम् शांति, शांति, शांति ।
28 :: महागुहा की चेतना
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