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बाँहों भर संसार
रांका और बांका गृहस्थ संत थे। यूं तो वे पति-पत्नी थे, लेकिन उनका निष्कलुष व्यवहार, निष्काम भाव किसी वैरागी संत के समकक्ष ही था। इतना पवित्र और निर्मल जीवन था उनका। प्रतिदिन प्रातःकाल जंगल में जाते, लकड़ियाँ काटते-बीते गट्टर बनाकर बाजार में ले जाकर बेच देते। जितना जो कुछ मिल जाता उसी को प्रभु की कृपा, प्रभु का प्रसाद, प्रभु की सौगात मान स्वीकार कर लेते और उसी में जीवन-यापन करते। कभी-कभी तो लकड़ियाँ भी न मिलतीं, कभी बाजार में लकड़ी बिकती भी नहीं और कभी यह स्थिति भी आ जाती कि दोनों को भूखे ही सोना पड़ता, लेकिन इससे उनके आनन्द में कोई फर्क नहीं पड़ता। अगर कभी वे भूखे रह जाते तब भी वे परमात्मा को धन्यवाद देते कि आज उपवास करने को मिला। रोज ही खाना खा रहे थे, आज तूने उपवास का मौका दिया, तेरा शुक्रिया ! __ कहते हैं एक दिन रांका और बांका लकड़ियाँ इकट्ठी कर बाजार में बेचने के लिए जा रहे थे। रांका आगे और बांकां पीछे थी। दोनों के मध्य काफी फासला था। तभी राका की नजर मोहरों-भरी चमकती थैली पर पड़ी। वह झुका और उस पर मिट्टी डालने लगा। उसने सोचा कि कहीं बांका इन मोहरों को देखकर ललचा न उठे और घर ले जाने का मन बना ले। वह मिट्टी डाल ही रहा था कि बांका भी आ पहुँची। उसने पूछा-अरे यह क्या कर रहे हो ? रांका बात छिपा न सका। उसने कहा-यहाँ सोने के मोहरों से भरी थैली पड़ी थी, मैंने सोचा, इन्हें देखकर तुम्हारा मन ललचा न जाए इसलिए इन्हें मिट्टी से ढंक रहा था। बांका मुस्कराई और कहने लगी-मैंने सोचा कि तुम बहुत बड़े निस्पृह संत हो, लेकिन लगता नहीं है। अरे मिट्टी को मिट्टी से ढंक रहे 10 : : महागुहा की चेतना
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