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शान्त मनस् ही साधना
अस्तित्व की जितनी रेखाएँ हैं, नियति की रेखाएँ उससे कहीं ज्यादा हैं। नियति से ही अस्तित्व संचालित होता है। अनंत रेखाएँ हैं नियति की। जो हुआ, उसे इसलिए प्रेम से स्वीकार कर लो, क्योंकि ऐसा ही होने वाला है। जो हो रहा है, उसे भी ऐसे ही स्वीकार कर लो, क्योंकि वही होने वाला है; और जो होगा वह होने वाला है, इसलिए होगा। चाहे मनुष्य की इच्छाएँ हों, पुरुषार्थ हो या परिणाम हो, निश्चित तौर पर इन सबकी जीवन में महत्ता है, लेकिन नियति इन सबके पार है। मनुष्य के अधीन न इच्छा है, न पुरुषार्थ है और न ही परिणाम। यह अस्तित्व का मोटा सत्य है और इसे हम विधि की व्यवस्था या नियति भी कह सकते हैं। जो चेतन, चेतन था, चेतन है और चेतन रहेगा, वह कभी भी अचेतन नहीं हो सकता। और जो अचेतन कभी अचेतन था, आज अचेतन है और अचेतन ही रहेगा। वह कभी चेतन नहीं हो सकता।
जो होनहार होता है, वह तो होकर ही रहता है, इसके बावजूद मनुष्य कुछ अच्छा होने पर स्वयं को अच्छा महसूस करता है और कुछ बुरा होने पर स्वयं को बुरा। किसी मित्र को देखने पर उसके अंतःकरण में प्रेम पनपता है, तो किसी शत्रु को देखकर स्वतः वैर उपजता है। किसी का जन्म होने पर प्रसन्नता और किसी की मृत्यु पर खेद । विकास पर प्रसन्नता और अवनति पर विषाद। यही तो मनुष्य के आत्मिक अशांति के मूल निमित्त बनते हैं। और दूसरा सत्य यह है कि प्रायः अशांति बाहर से कम, मनुष्य के अंतर्-मन से ज्यादा निपज कर आती है और यह अशांति ही उसके जीवन के आनंद को छीनने में सबसे बड़ी भूमिका अदा करती है। जो कुछ मिल रहा है, अच्छा मिल रहा
शान्त मनस् ही साधना : : 111
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