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________________ नहीं कर रहे हैं। उनके चेहरे पर शिकन तक न थी। उसने पिताजी से पूछा, पिताजी ने कहा, तुमने बीमा करवा लिया है, इसलिए अब कुछ करने की क्या जरूरत । बेटे ने कहा-पिताजी बीमा नहीं करवाया है। केवल बीमे की बात ही हुई है। यह सुनना था कि पिता सिर पकड़कर बैठ गया। मानो वज्रपात हो गया। आग मकान में नहीं लगी है, आग 'मेरेपन' में लगी है। मेरे प्रभु, ऐसे एक-एक नहीं, सौ-सौ मकान जल जाएं, तो तुम दुबारा खड़े कर लोगे, लेकिन अगर सोचो इन मकानों के बनाने-संवारने के चक्कर में मालिक ही खो गया, तो उस माल का क्या ! एक मकान में जोरों की आग लगी थी। सारा सामान बाहर निकाल लिया गया। तभी पत्नी को याद आया कि मुन्ना वहीं रह गया है। आग बहुत विकराल रूप ले चुकी थी, इसलिए उसे बचा पाना बहुत कठिन था। आखिर वह बच्चा उस आग में जल गया। माल तो सारा ले आए, लेकिन मालिक ही दफन हो गया। अब भला उस बटोरे हुए माल का क्या करोगे, जरा इस पर भी तो आत्मचिंतन करो। अपने मकान के एक भाग में आग लग गई, तो तुम्हारी आँखों में आँसू आ गए, लेकिन जब तुम्हारी काया में आग लगेगी, तो क्या ये चूने-पत्थरों की दीवारें आँसू बहाएगी। कहाँ का सम्बन्ध जोड़ रहे हो? कहाँ की आसक्ति जोड़ रहे हो? कहाँ के सम्मोहन पाल रहे हो? यह तो कालचक्र की चाल है। यहाँ पर तो मकान बनते हैं और फिर श्मशान में तब्दील हो जाते हैं। यहाँ कोई स्थायित्व नहीं है। अनित्यता, क्षणभंगुरता, अशाश्वतता संसार का, प्रकृति का धर्म है। चित्त में शिकवा-शिकायत मत पालो। चित्त को चिन्तन का आयाम दो, चिन्ता का नहीं। मन को माधुर्य दो, मरघट नहीं। मन को गौरव दो, गिला नहीं। जीवन में जो होना है, सो हो, होनी में कैसा हस्तक्षेप। तुम तो सदा तटस्थ रहो। गिला-शुबहा से खुद को आजाद करो और कुदरत की जैसी, जब, जो व्यवस्था है, उसमें तृप्त रहो।। सबसे प्रेम करो, सबका सम्मान करो। सबके साथ प्रेम से जीते हुए भी उनकी ओर से कभी उपेक्षा हो जाए तो मौन-मधुर रहो। यही आज के सूत्रों का सार-संदेश है। 100 : : महागुहा की चेतना Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003894
Book TitleMahaguha ki Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1999
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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