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दस्तक शून्य के द्वार पर
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। पहचाना ही नहीं कभी अपनी ऊँघ को, नींद को । कार चलाना तो याद रहा, पर ब्रेक लगाना भूल बैठा । जन्म और जन्म-दिवस की स्मृति बनाये रखी, पर मृत्यु और मृत्यु-दिवस का सोच भी पैदा न हुआ ।
जीवन के सूरज का उपयोग वही कर सकता है, जो उसके उदय और अस्त दोनों स्थितियों को याद रखता है ।
जिन्दगी मृत्यु के करीब होती जाती है । यहाँ यात्रा भी मृत्यु है और मंजिल भी मृत्यु । मृत्यु तो मृत्यु है ही, पर जिन्दगी भी मृत्यु के लिए है । जन्म और जिन्दगी याद रहे, पर मृत्यु को बिसरा बैठे ।
अगर संसार से कुछ सीखे हो तो मरना ही होगा । मृत्यु ध्यान की पूर्णता है, समाधि की पहल है। मौत जीवन की नहीं, चित्त पर रोज-ब-रोज आते संस्कारों की धूल की करनी है । आदमी को रोज मरना ही चाहिए । हर अगला दिन पुनर्जन्म है । कल और कल की बातें मर जाएँ तो मानसिक और वैचारिक उठापठक की पकड़ ढीली होती जाएगी । हर अगले दिन आप नवजात शिशु होने चाहिये । यह हमारा सौभाग्य है कि हमें मात्र इसी जन्म की बातें याद हैं । यह ऊपर वाले की मेहरबानी है। कि हमें पूर्व जन्म की बातें याद नहीं हैं । चित्त की पकड़ उस तक नहीं है, अन्यथा उस गये / बीते अतीत को चित्त से हटाने में बड़ी कड़ी मेहनत करनी पड़ती । सोचें, जब एक जन्म के ही संस्कारों से शून्य होने में इतनी उठापठक करनी पड़ती है, तो जन्मों-जन्मों के चित्त संस्कारों की स्वच्छता के लिए कितने लम्बे-चौड़े अभियान चलाने पड़ते ।
अतीत के प्रति मूकता और वर्तमान के प्रति जागरूकता भविष्य के द्वार पर सहज दस्तक है । वर्तमान की नजरों से परखने के लिए ही मैंने तरुवर के नीचे बैठने को सुधरी सलाह दी । तरु जीवन्तता है, हरीतिमा है । पत्ते - पत्ते में जीवन के गीत हैं, तबले की थाप भी है, कण्ठ के आलाप भी हैं, नृत्य-संगीत भी है ।
तरु साधक है । वह खुद भी साधक है । अतीत का संन्यासी और वर्तमान का अनुपश्यी है वह । कल को भूल बैठा है । वर्तमान का द्रष्टा बन भोग रहा है । भोग हो, पर द्रष्टा-भाव सध जाये तो वह भोग
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