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चलें, मन के पार है । बैखरी, मध्यमा, पश्यन्ति और परा- जीवन-विज्ञान के ये चार शिखर हैं । जैसे जमनोत्री से गंगोत्री ऊपर और गंगोत्री से गोमुख, गोमुख से कैलाश ऊपर है, परम है, वैसे ही हैं ये चार तल ।
पहला तल है बैखरी का- बोलने का । आदमी खूब बोलता है, किन्त रोजाना बोल-बोलकर भी वही बोलता है, जिसे वह कई बार बोल चुका है । वैज्ञानिकों के मुताबिक मनुष्य अस्सी फीसदी वही बोलता है, जो बोला जा चुका है । तुम अपनी पली से प्रेम की जिस ढंग से बात करते हो, तुम्हारा मित्र भी अपनी पत्नी से वैसे ही या उससे मिलती-जुलती बातें करता है । माता-पिता भी वैसा ही करते थे । आखिर शब्द सीमित हैं, लहजा बदलेगा, मूल में तब्दील नहीं होगी । हर संवाद स्मृति का पिष्टपेषण है । इस तरह आदमी 'आटे' को ही बार-बार पीसता रहता है ।
राजनेताओं के भाषण सुन लो । झूठे आश्वासन और जोशीले भाषण- इसी में उनकी जिन्दगी खफ़ा होती है ।
एक मंत्री मेरे पास आया करते थे । चुनाव का माहौल था । एक दिन शाम के वक्त थके-मांदे मेरे पास आये । कहने लगे सुबह से अभी तक दस ही मीटिंग हो पाई हैं और पाँच दिन बाद चुनाव हैं । दस जगह भाषण दे चुका हूँ, अभी तक चार जगह और सम्बोधन करना है । बोलते-बोलते उनका गला फट चुका था । मैंने पूछा, दस जगह ? एक-सा ही भाषण देते हो या जुदे-जुदे ? कहने लगे- भाषण तो एक ही है, सिर्फ स्थान बदल जाते हैं ।
बैखरी वक्तव्य की पुनरावृत्ति है । पता है लोकोक्ति कैसे बनती है ? जो बात लम्बे समय से लोगों की जुबां से गुजरती है । एक ही बात को सब दोहरा रहे हैं । इसलिए अपनी बात को सारगर्भित रूप दो । उतना ही बोलो, जितने से काम चल सकता है । सत्य तो यह है कि लम्बे वक्तव्य की बजाय छोटे वक्तव्य अधिक प्रभावशाली होते हैं । साहित्य-मनीषा कहती है- वाक्यं रसात्मकं काव्यम् । रसात्मक वाक्य ही काव्य है । जो व्यक्ति चौबीस घंटे में बारह घंटे मौन रखता है, उसकी
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