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चित्त-वृत्तियों के आर-पार पुरुष ! वह स्त्री को नदी पार नहीं करा रहा, अपितु 'किसी' को पार करा रहा है । यदि स्त्री भी मानें तो हर स्त्री माँ है । 'मातृवत् परदारेषु' जैसी उक्ति उसके लिए नहीं है । उसके लिए तो 'मातृवत् सर्वदारेषु' सही है । क्या तीर्थंकर छाँट-छाँट कर पार लगाते हैं कि यह स्त्री- वह पुरुष ? यदि किसी को पार लगाया जा सकता है, तो लगाओ । स्त्री-पुरुष का भेद तो आम आदमी के लिए निर्दिष्ट है; साधक तो इस भेद से मुक्त है । राम ने निष्कासित किया, वाल्मीकि ने आश्रय दिया, ऋषि ने मुनित्व का परिचय दिया ।
तुम स्त्री के साथ संसार बसाना खतरनाक समझते हो, तो मत बसाओ, किन्तु उसके लिए घृणा की कटारें तो मत चलाओ । साधुता जीवन की आभा बने । साधुता को अन्तरजगत् में लाओ । मन से ही निष्कासित कर दो असाधुता को, मन की हवश को ।
हमारे लिए वह प्रवृत्ति खतरनाक होती है, जिसका असर हमारी मनोवृत्तियों पर पड़ता है । यदि हम प्रवृत्ति न भी करें, परन्तु वृत्ति पर उसका छायांकन हो गया, तो वह जीवन-घाती है । वह साधना-मार्ग पर स्वयं को भले ही आरूढ़ समझ ले, पर दमन-के-मार्ग से चलने वाला पांथ 'उपशान्त-कषायी' है । अस्तित्व-विशुद्धि के लिए उसे पुनः प्रयास करने होंगे । इसलिए जब तक वृत्तियों के दलदल में फंसे रहोगे, तब तक जीवन की नौका सागर के पार कतई न उतर पाएगी । वह तो टूटेगी चित्त के ही किनारे-दर-किनारे से थपेड़े खा-खाकर, टकरा-टकराकर । इस तरह तो मंजिल के आसपास चक्कर काटते हुए भी मंजिल से दूर बने रहोगे -
मंजिल को ढूँढते हैं, मंजिल के आस-पास । किश्ती डूबती है, साहिल के आस-पास ॥
यदि जीवन की ऊर्ध्वगामी मंजिलों को पाना है, तो आत्मबोध के करीब आना होगा और आत्मबोध के लिए वृत्ति-शून्यता को साकार करना होगा ।
हमें चलना चाहिए मन-के-पार, चित्त-के-पार । चित्त की गति वृत्ति है और उसकी प्रगति प्रवृत्ति । निवृत्ति वृत्तियों से रहित होना है ।
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