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चित्त-वृत्तियों के आर-पार
जीवन का संगीत वृत्ति और प्रवृत्ति दोनों के पार है । दुष्प्रवृत्ति अपराध है, दुष्वृत्ति पाप है । दुष्वृत्ति का परिणाम स्वयंभोग्य है, किन्तु दुष्प्रवृत्ति के लिए न्यायालय की कानून-संहिता दंड देती है । चपत चाहे मित्र की हो या दुश्मन की, वह चपत तो कहलाएगी ही । मुक्ति वृत्ति-प्रवृत्ति/ पाप-पुण्य दोनों के पार है।
बड़ी प्रचलित कहावत है- मुख में राम बगल में छुरी, यानि प्रवृत्ति अच्छी, किन्तु वृत्ति बुरी । यदि वृत्ति बुरी है तो प्रवृत्ति अच्छी होते हुए भी जीवन-विज्ञान की दृष्टि में बुरी ही होगी । इसलिए प्रवृत्ति की बुराई को हटाने से पहले वृत्ति में रहने वाली बुराई को दूर करें । प्रवृत्ति में लाया जाने वाला परिवर्तन तो मात्र बैल का खूटे बदलना है । वह जीवन-क्रान्ति का नगाड़ा-वादन नहीं है । जीवन-क्रान्ति तो वृत्तियों में आमूलचूल परिवर्तन होने की घटना है । मेरा जोर वृत्तियों के प्रति जागने के लिए है । पतंजलि का आम सूत्र है- योगः चित्तवृत्ति-निरोधः ।
चित्त-वृत्तियों का शान्त होना ही योग है । योग वह निरोधक है, जो वृत्तियों के जन्म पर अवरोध खड़ा कर देता है । चित्त-की-वृत्तियाँ चित्त-का-व्यापार है । जब तक मनुष्य वृत्तिप्रधान रहेगा, मानसिक व्यापार उसके हर अंग से जुड़ा रहेगा । मानसिक व्यापार ही सुख-दुःख, हर्ष-घुटन के फायदे-घाटे का सौदा तैयार करता है। वह एक में टिक नहीं पाता | 'तू तो रंडी फिरे बिहंडी'- वेश्या की तरह मन की प्रवृत्ति है । मन का एक में लगना ही उसका निमज्जन है । एक पति या एक पत्नी में मन का लगना प्रेम है, एक गुरु के प्रति उसका समर्पित होना श्रद्धा है, और एक परमात्मा में डूब जाना प्रार्थना है ।
पर मन अनेकता का दावा करता है । मन के चलते मनुष्य जीवन-भर मात्र मन का ही अनुगमन करेगा । मगर एक बात तय है कि मनुष्य जीवन का सर्वस्व नहीं है । मन जीवन की सर्वस्वता का एक अनबूझा अंग है । मन मरणधर्मा है । मृत्युञ्जय मरणधर्मा तत्त्वों से कहाँ सम्भव !
इसलिए एक बात ध्यान रखें, मात्र प्रवृत्तिशून्य हो जाने से कुछ न
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