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चलें, मन-के-पार मन का परिमार्जन सान्त्वना देने वाली बात है । सान्त्वना सुबकतों को भी दी जाती है और प्रगतिशील प्रतिभाओं को भी । पर हैं तो दोनों ही मन की भंगिमा । सान्त्वना दी जाती है दूसरों-के-द्वारा । हमारे जीवन के अच्छे-बुरे मापदण्ड का निर्णय हम दूसरों की जुबान को ससम्मान सुपुर्द कर देते हैं । किसी के द्वारा अच्छे कहे जाने पर हम स्वयं को अच्छा मान लेते हैं, उसके द्वारा किये जाने वाले गुणानुवाद के प्रति हम धन्यवाद से भर जाते हैं, तो बुरा कहे जाने पर स्वयं को बुरा मानते हुए उसके प्रति उपेक्षा-भाव दृढ़ कर लेते हैं । भला, जब सभी लोग बकरी को कुतिया कहते हैं, तो यह कुतिया ही होगी । दूसरों के बातुनी सम्मोहन में स्वयं का विवेक छोड़ देना आत्म-निर्णय से वंचित होना है ।
आत्मनिर्णय के लिए हमें वर्तमान परिस्थिति का जायजा लेना होगा । ढुलमुल यकीन काम न आएगा । जो है, वही है; जैसा है, अपनी वास्तविकता में है । अध्यात्म स्वयं की वास्तविकताओं से साक्षात्कार है ।
जीवन की समग्रता शाश्वतता में है । अहो ! कब वह दिन होगा, जब धरती के लोग शाश्वतता के स्वप्न को सत्य बना पाएंगे । शाश्वतता हमारे अस्तित्व से जुड़ी आभा है । यह समय की पुकार नहीं है, अपितु समय की हार है । समय की पहाड़ियों पर शाश्वतता नहीं खिलती । शाश्वतता का जन्म समय के कांटे के टूट जाने पर सम्भव है ।
हम पहल करें शाश्वतता की, मन से मुक्त होने की । अपने जीवन को पढ़ें, निहारें, जीवन की असलियत खुद-ब-खुद सामने नजर आ जाएगी । मुझे सुनकर जगने वाली प्यास उधार है; सुने, पढ़ें स्वयं को, ताकि यात्रा शुरू कर सको गहन प्यास के साथ जीवन के जलस्रोत को ढूँढने की । इन्द्रियजीवी होने के कारण शायद जलस्रोत बाहर ढूँढ सको, किन्तु लौटकर स्वयं में झांकोगे, तो जलस्रोत स्वयं में ही रुंधा-दबा पाओगे । बाहर ढूँढना मन की यात्रा है, स्वयं का अतिक्रमण है । भीतर निहारना अमन-की-कोशिश है, स्वयं-का-प्रतिक्रमण है ।
जीवन के स्रोत स्वयं में हैं । अतीत से भी रहे हैं, अभी भी हैं । जो 'है' उसके 'था' पर विचार करते रहना अनर्गल प्रयास है ।
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