________________
चलें, मन-के-पार
३४
ढहने लगती है । चित्त ही चुप्पी साध ले, तो स्वप्न- भटकाव कहाँ ।
यद्यपि सपने दिन भर के दुःखी जीवन में दिखने वाली रजनीगंधा इन्द्रधनुषी रंगीनियाँ हैं, पर सपने के लड्डुओं से पेट नहीं भरता । स्वप्न सत्य नहीं, मात्र विचारों-के-द्वन्द्व का सागर की लहरों में नजर- मुहैय्या होने वाला प्रतिबिम्ब है । ध्यान का प्रभाव मन पर जम जाये, तो चंचलता हिमाच्छादित हो जायेगी, स्थिरता आँख खोल लेगी ।
आत्म-शुद्धि अन्तर्यात्रा का सधा कदम है। आत्म-शुद्धि ही जीवन-शुद्धि है । चित्त-शुद्धि जीवनशुद्धि की अनिवार्य शर्त है । काया कल्प के पीछे पड़ने वाले लोग जीवन-कल्प पर विचार भी नहीं करते । शरीर, विचार और मन - तीनों की शुद्धि ही आत्म-शुद्धि की तैयारी है । स्वयं का पात्र मंज जाये, तो ही पीयूष -पान का मजा है ।
मानसिक एकाग्रता के लिए जलधारा, दीप-ज्योति, सूर्य-किरण, परमात्म-प्रतिमा, शब्द-मन्त्र वगैरह प्रतीक चुने जाते हैं । ये आलम्बन सारे जहान में भटकाव से हटाव में मददगार हैं । परमात्मा की परम शांति / शक्ति की सम्भावना स्वयं व्यक्ति के अन्दर है । भीतर का दीपक जलाने के लिए किसी प्रकार के प्रबन्ध की जरूरत नहीं है । वह तो ज्योतित ही है । दीपक के इर्द-गिर्द आवरण है । अनावरण करें दीप का, रोशनी बहेगी
आर-पार
ध्यान स्वयं को बेनकाब करने का ही प्रयत्न है ।
ध्यान की सिद्धि के लिए चित्त की प्रसन्नता अपरिहार्य है । दुःखी व्यथित आदमी ध्यान में व्यथा-कथा की ही प्रस्तावना लिखेगा । जब स्वयं को खुश महसूस करें, तभी ध्यान के द्वार पर दस्तक दें । परम प्रसन्नता का समय ही ध्यान करने का सही समय है, फिर चाहे वह समय रात से जुड़ा हो या प्रभात से । ध्यान हमारे जीवन का अमृत - मित्र बन जाये, तो ही ध्यान का सही आनन्द है । श्वांसों का प्रेक्षण, चिन्तन का अनुपश्यन ही ध्यान नहीं है; ध्यानपूर्वक खाना, सोना, चलना, बोलना - सब ध्यान ही हैं । एकाग्रता एवं शक्ति - घनत्व का प्रयोग हो । ध्यान हमारे अस्तित्व का अंग तभी है, जब उसके बिना जीवन विरहनी की कविता बन जाये ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org