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चलें, बन्धन-के-पार
एक फकीर था । बड़ा औलिया । उसके चेहरे पर हमेशा एक रहस्य भरी मुस्कान रहती थी । उसकी एक आदत थी चोरी करने की । चोरियां भी वह कोई हजारों-लाखों की नहीं करता था । वह चोरी करता घिसे-पिटे झाडू की, अधजली लकड़ियों की, माटी के ठीकरों की । वह अब तक कई बार जेल की हवा खा चुका था, फिर भी उसकी चोरी की टेव न गयी । लोग उसका सम्मान भी करते थे । एक अचौर्य-संत द्वारा होने वाली चोरियाँ भी उनके लिए पहेली बन गई ।
एक दिन फकीर के किसी हमदर्द ने उससे कहा, महाराज ! आपका बार-बार चोरी करना और जेल जाना मुझे अच्छा नहीं लगता । आपको जिन चीजों की जरूरत हो, मुझे कहें । मैं उनकी पूर्ति करूँगा । मगर मेहरबानी कर आप चोरी न करें ।
____ फकीर हँसा एक रहस्यमय ठहाके के साथ । फकीर ने कहा कि यह सम्भव नहीं है कि मैं चोरी न करूँ । हमदर्द ने पूछा आखिर क्यों ? फकीर ने गम्भीर होकर कहा, इसलिए ताकि मैं कारागृहों में जा सकूँ । मुझे चीजों की आवश्यकता है, इसलिए मैं चोरी नहीं करता । मैं तो कारागृहों में जाने के लिए चोरी करता हूँ । वहाँ हजारों बन्दी हैं । मैं उन्हें उस सन्देश का सम्राट बनाना चाहता हूँ, जिससे वे गिरा सकें अपने बन्धन, भीतर के बन्धन ।
___ मैं भी आना चाहता हूँ आपके कारागृह में । यहां सभी आबद्ध हैं । सभी की ग्रन्थियाँ हैं । क्या आप मुझे अनुमति देंगे अपने कारागृह में आने की ? सीखचों को छूने की ?
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