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चलें, मन-के-पार
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महावीर की देन है । सत्य तो यह है कि महावीर के सम्पूर्ण तत्त्व-दर्शन को एक मात्र इसी शब्द से व्याख्यायित किया जा सकता है । भेद-विज्ञान का अर्थ है, स्वयं को चित्त से अलग मानना; जागृति, स्वप्न और सुषुप्ति से अलग मानना; संसार, संसार के प्रतिबिम्ब और शारीरिक तन्द्रा से अलग मानना ।
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अभी तो सब एक-दूसरे से घुले-मिले हैं, रचे-बसे हैं । जगे हैं तो जुड़े हैं; सो रहे हैं तो सपनों में तैर रहे हैं । जबकि हमारा स्वभाव न तो सोना है, न सपने देखना । जो एकरसता है, वह तादात्म्य के कारण है । न तुम झूठे हो, न तुम्हारा पड़ौसी; न संसार झूठा है, न चाँद-सितारे । झूठा है तादात्म्य, सम्बन्धों-का-आरोपण, आरोहण और अवरोहण |
तादात्म्य ही दुःख का कारण है । दुःखी होने पर रोते हो और सुखी होने पर खुश नजर आते हो । जबकि सत्य तो यह है कि तुम सुख और दुःख दोनों से अलग हो । मैं अलग हूँ, यह बोध ही तो भेद - विज्ञान का मूल फार्मूला है । क्रोध है तो क्रोध से, लोभ है तो लोभ से, चोट है तो चोट से, भूख है तो भूख से, अपने आपको अलग जानो ।
यदि क्रोध आये तो क्रोध को देखो और यह अनुभव करो कि क्रोध करने वाला मैं नहीं हूँ । मैं तो क्रोध की चिंगारी उठने से पहले भी था । उसके बुझ जाने के बाद भी मैं तो रहेगा । क्रोध तो क्षणिक है, मैं क्रोध नहीं हूँ ।
चोट लगने पर यह अहसास न करें कि मुझे चोट लगी है । चोट तो शरीर को लगी है और मैं शरीर से भिन्न हूँ । सच्चाई तो यह है कि अगर भेद-विज्ञान सध जाये, तो चोट और दर्द की अनुभूति बड़ी क्षीण होगी. अत्यन्त सामान्य, न्यूनतम । शरीर के प्रति जितना लगाव होगा, शारीरिक वेदना हमें उतनी ही व्यथित करेगी । परिणाम जो होना होगा, सो तो होगा । भेद-विज्ञान परिणाम से पूर्व होने वाली चीख - चिल्लाहट को नहीं होने देता । दर्द और दुःख के बीच भी चेहरे पर उभरने वाली मुस्कान चेतना की प्रकाशमान् दशा है । असाध्य रोगियों के लिए तो यह पीड़ा से परे होने का अचूक साधन है ।
भूख लगने पर भोजन अवश्य करें, परन्तु इस समझ के साथ कि
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