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चलें, मन-केपार आपको एक उदाहरण देता हूँ । उसे आप अनुभव भी कर सकते हैं । आप एक पेड़ के पास जाकर मन में विचार करें ‘इसे काट डालूं', आप पाएँगे कि पेड़ में आपके सोचने मात्र से प्रकम्पन हुआ है । आखिर क्यों न हो, वह भी एक जीव है । आप किसी फूल की सुन्दरता को देखते रहिए, मगर जैसे ही आप मन में यह विचार करेंगे कि 'इस फूल को तोड़ लूं' वह पूरा पौधा संवेदनशील हो जाएगा । पत्तियाँ अपने आप मुरझाने लगेंगी । जिन लोगों ने डार्विन और बसु को गहराई से पढ़ा है, वे इसे समझ सकते हैं कि अगर आप केवल मन में सोचते हैं तो आपका वह सोच भी वनस्पति को प्रकम्पित कर डालेगा ।
जब मैं तमिलनाडू की यात्रा पर था, तो एक बार मैंने देखा कि सड़क पर कुछ गिद्ध किसी मरे हुए पशु को नोंच रहे हैं । हम काफी दूर थे । इतने में हमारे पीछे से दो लड़के दौड़ते हुए आए । उन्होंने एक गिद्ध को पकड़ लिया । उन लड़कों ने उस गिद्ध की गर्दन मरोड़ी, उसके पंख तोड़े और उसका मांस कच्चा ही चबाने लगे । यद्यपि एक गिद्ध की यह हालत देखकर अन्य गिद्धों को उड़ जाना था, मगर वे नहीं उड़े, बल्कि उनकी हालत हत्प्राण जैसी हो गई । वे यह भूल गए कि हमें तो उड़ जाना चाहिए, नहीं तो हमारा नम्बर भी आ सकता है । यही स्थिति है जो दूसरों को उखाड़ना चाहता है वह अपने आप में कृष्ण लेश्या बाँध रहा है । मूलाधार में ही पड़ा है । उसकी कुण्डलिनी जगती जरूर है, मगर उसे उसका लाभ मिल नहीं पाता ।
कुण्डलिनी का जागरण तभी उपयोगी समझना जब वह हृदय-चक्र में प्रवेश कर ले । प्राणायाम, योग, श्वांस-प्रेक्षा द्वारा, भावों के केन्द्रीकरण द्वारा कुण्डलिनी को जगा लो, तब भी एक ध्यान जरूर रखना कि आज्ञा-चक्र में प्रवेश हो जाए । रंगों से पार हो जाएँ । रंग आखिर हैं क्या ? रंग का अर्थ होता है राग- और रंगों से अलग होना है- विराग । सहस्रार में प्रवेश का भी अर्थ यही है ।
रंग व्यक्ति का आभामंडल है । यह मत समझना कि आभामंडल हमेशा उजला ही रहता है । व्यक्ति जिन भावों में जीता है, जिन चक्रों को छूता है, जिन लेश्याओं का स्पर्श करता है; उसके आभामंडल का रंग
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