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________________ अस्तित्व की जड़ों में 3 भी क्या दूर की देखने लगा है । आँख वाले देख न पाये और अन्धा स्वर्ग देखे । उसने कहा, वह मैंने सच में नहीं स्वप्न में देखा था । मैंने कहा, तुम्हें बधाई है । पहली बार सुनने को मिला कि अन्धा भी देखता है । पर इतना जरूर याद रखना कि यह देखना नहीं, वंचना है। यह दृष्टि नहीं, यह विकृति है । मन अगर जीवन का प्रतिनिधित्व करेगा, तो ऐसी विकृतियाँ जनमती रहेंगी । मन का यदि सही उपयोग किया जाये, तो वही व्यक्ति के लिए योग और ध्यान बन जायेगा । ___ मन गुलामी को भी इजात कर सकता है और स्वतंत्रता का स्रोत भी हो सकता है । वह संसार का प्रवेश-द्वार भी बन जाता है और निगमन-द्वार भी । स्वर्ग के सपने दिखाने वाला भी वही है, तो नरक भी इसी के कारण है। जो मन का मालिक बन गया, उसके मन का अन्त्येष्टि-संस्कार हो गया। यदि सिंह तुम्हारी बेड़ियों में है, तुम्हें देखते ही उसकी सिट्टी-पिट्टी गुम हो जाती है, मिमियाने लगता है, तो उसके सिंहत्व का अस्तित्व कहाँ ! इस स्थिति को मन-की-मृत्यु कहेंगे । तुम दुःखी हो, मन के वर्चस्व के कारण; तनावग्रस्त हो, मन के रचनातन्त्र के कारण । दुःखी हो, इसीलिए स्वर्ग के सपने देखते हो । स्वर्ग सुख की आशा है और नरक दुःख का भय । स्वर्ग और नरक दोनों मन के विज्ञान हैं । मोक्ष है स्वर्ग-नरक के पार, सत्यरूप, चैतन्य रूप, आनन्द रूप । जीवन के आधार स्वर्ग-नरक नहीं हैं । स्वर्ग-नरक मन की क्रियाशीलता के चरण हैं । जीवन का आधार स्वयं व्यक्ति का अस्तित्व है । जैसा है, उसे अंगीकार करो । इस अंगीकरण में ही तुम परम अहोभाव से भर जाओगे । आत्म-स्वीकृति ही उत्सव है, जो भर देगा एड़ी से चोटी तक एक अभिनव मुस्कान/आनन्द । यह उत्सव ऊर्जा-समीकरण का है । ध्यान का यह 'मानतुंग' शिखर है। जो ऐसे उत्सव में सक्रिय है, वह अमीरों-का-अमीर है । __ हर इंसान सम्राट है, अमीरों-का-अमीर है । स्वामित्व का बोध हाथ से फिसल गया, इसलिए गरीब और विपन्न लगते हो । क्या तुम इसे कम समझते Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003892
Book TitleChale Man ke Par
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1993
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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