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ध्यान से सधती शान्ति, शक्ति, समाधि
उद्योग अर्थात् उद् + योग > ऊँचा योग । उद्योग की बुनियाद श्रम है और श्रम करना ऊँचा योग है । अगर श्रम ठीक है, तो उद्योग करना कहाँ पाप है ! यह तो जीवन की साधना का एक जरूरतमन्द पहलू है । अपनी मेहनत-की-रोटी-खाना अपने पौरुष-का-पसीना निकालना नहीं है, वरन् पसीने के नाम पर उसका उपयोग करते हुए, उसे जंग लगने से दूर रखना है ।
__ अपने हाथों से तन्मयतापूर्वक श्रम करना पापों-से-मुक्ति पाने का आसान तरीका है । दूसरों द्वारा कोई काम कराने की बजाय स्वयं करना अधिक श्रेयस्कर है । खाते-पीते, उठते-बैठते, सोते-जागते हर समय होश रखना स्वयं को गृहस्थ-सन्त के आसन पर जमाना है । ध्यान-योग की यही व्यावहारिकता है ।
दिन संसार है; रात उससे आँख मूंदना है । दिन में अपनी वृत्ति फैलाओ, ताकि जीवन की गतिविधियाँ ठप्प न हो जाएँ और साँझ पड़ते-पड़ते सूर्यकिरणों की तरह उनका संवरण कर लो । यही चित्त का फैलाव और संकोच है । यदि रात को स्वप्र-मुक्त निद्रा भी ली, तो भी वह चित्त-की-एकाग्रता ही है। ध्यान का काम स्वप्न-मुक्त/निर्विकल्प चित्त का प्रबन्ध है | जब किसी आसन पर बैठे बिना ही, बिना प्रयास किये ध्यान हो जाये, तो ही वह जीवन का इंकलाब है । जब ध्यान अभ्यास और सिद्धांत से ऊपर जीवन का अभिन्न अंग बन जाये, तभी वह अन्तर्मन में परमात्मा के अधिष्ठान का निमित्त बनता है |
__स्वयं-के-द्वारा स्वयं को स्वयं में देखने की प्रक्रिया स्वच्छ ध्यान है। स्वयं से मुलाकात हो जाने का नाम ही आत्मयोग है। ध्यान है अन्तर्यात्रा । वह भीतर का बोध कराता है । मन का हर संवेग वह सुनाता है । ध्यान के समय मन का भटकाव फिसलन नहीं है, अपितु अन्तरंग में दबे-जमे विचारों-का-प्रतिबिम्ब है । ध्यान अगर ऊपर-ऊपर होगा, तो वह ऊपर-ऊपर के विचार जतलाएगा; यदि गहरा होगा, तो गहराई से साक्षात्कार करवाएगा । जो यह कहते हैं कि ध्यान के समय हमारा मन टिकता नहीं, वे ध्यान नहीं करते, वरन् ध्यान के नाम पर औपचारिकता निभा रहे हैं । ध्यान ज्यों-ज्यों गहरा होता जाएगा, त्यों-त्यों विचार भी गहरे होते जाएँगे । वे बड़े पके हुए और सधे हुए फल होंगे । समाधि-के-क्षणों में आने वाले विचार आत्म-ज्ञान की झंकार है । समाधिमय जीवन में उभरे
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